करवा चौथ का चांद भी रोशन नहीं कर सका छोटे बाजार

पिछली बार की तरह इस करवा चौथ के लिए ब्यूटी पार्लर के आगे रंगीन शामियाना लगा कर कुर्सियां सजा दी थीं। लेकिन मन में पहले से डर था कि कहीं इस शामियाने और कुर्सी का किराया ही भारी न पड़ जाए। गाजियाबाद में ब्यूटी पार्लर चलाने वाली कल्पना कहती हैं कि करवा चौथ तो एक ऐसा मौका होता था जब आधे साल की कमाई निकल जाती थी। लेकिन इस बार हर साल की तुलना में आधे कस्टमर ही आए हैं’। तो क्या आप इसे नोटबंदी और जीएसटी से जोड़ कर देखती हैं। इस सवाल के जवाब में कल्पना कहती है कि मुझे यह सब नहीं पता। मैं बस इतना जानती हूं कि इस करवा चौथ मेरा धंधा मंदा पड़ा है।
करवा चौथ की खरीदारी करने निकलीं नीलम थपलियाल सूखे मेवे खोज रही थीं। लेकिन वैशाली की किसी भी अच्छी दुकान में उन्हें खुले मेवे नहीं मिले। थपलियाल ने कहा कि सभी दुकानों में ब्रांडेड पैकेटबंद मेवे पड़े हैं जो महंगे पड़ते हैं। मिठाई की दुकानों की तरफ इशारा करते हुए वे कहती हैं कि आम तौर पर करवा चौथ पर मिठाइयों की दुकानों पर तिल रखने की जगह नहीं मिलती थी और इस बार वे आराम से ग्राहक निपटा रहे हैं। थपलियाल ने कहा कि पिछले साल पूरा बाजार मेहंदी लगाने वाली और लगवाने वालियों से भरा होता था, लेकिन इस बार मेहंदी लगाने के कम ही स्टॉल लगे हैं।

शालीमार गार्डन के ए ब्लॉक मार्केट में शाम में कपड़ों की दुकान सजाने वाली संगीता के पास सास-बहू जिरह कर रही थीं। बहू कह रही थी कि मांजी इस बार आप सिर्फ अपने लिए साड़ी ले लो, मेरे पास एक नई साड़ी पड़ी है मैं उससे काम चला लूंगी। अभी दिवाली के बहुत से खर्चे पड़े हैं सोच-समझ कर खर्च करना होना होगा। संगीता बताती है कि आमतौर पर करवा चौथ में दिल्ली-एनसीआर की मध्यमवर्गीय महिलाएं खुद पर अच्छा-खासा खर्च करती थीं। पिछले कुछ सालों से तो बिहार और उन प्रदेशों की महिलाएं भी पूरे पंजाबी रीति-रिवाज के साथ करवा चौथ मनाने लगी हैं जहां इसका चलन नहीं है। संगीता कहती हैं कि यही तो हमारी संस्कृति की खूबसूरती है कि जो अच्छा लगता है उसे अपना लेते हैं। लेकिन जब महंगाई की मार पड़ती है तो फिर यह सब कहां चलता है, लोग रस्मअदायगी ही देखने लगते हैं, चलो यह दौर भी खत्म हो जाएगा।

बाजार में टहल रही मधुमिता के हाथों की मेहंदी बता रही थी कि उसने यह घर पर ही लगवाई है। इस सवाल पर वह ठहाका लगा कर कहती है कि हां, हमारा संयुक्त परिवार है। सासु मां और देवरानियों का। प्रोफेशनल मेहंदी लगाने में तो काफी खर्च हो जाता इसलिए हमने घर पर ही एक-दूसरे को मेहंदी लगा कर त्योहार का मजा लिया। मधुमिता बताती है कि उसके पति एक तार बनाने वाली कंपनी में काम करते थे, लेकिन मंदी के कारण उनकी कंपनी को काम कम मिल रहा है जिससे कर्मचारियों को भी कम तनख्वाह मिलती है। मधुमिता कहती है कि जब पति को दो-तीन महीने से तनख्वाह ही न मिले तो डिजायनर मेहंदी कौन लगवाए।गाजियाबाद की ही एक सोसायटी में लकड़ी का काम करनेवाले असलम कहते हैं कि नोटबंदी के बाद तो तीन महीने तक काम का आॅर्डर ही नहीं मिला था। अब थोड़ा मामला संभला है। लेकिन दिवाली के पहले हमें जिस मुंहमांगे दाम पर काम मिल जाते थे वैसा माहौल अभी तक नहीं बन पाया है।

 

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