फिल्मों के मैदान में खेल का जलवा

पिछले साल राजकुमार हिरानी ने बतौर निर्माता ‘सालाखड़ूस’ में नया प्रयोग किया था। फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि खेलों में होने वाली गंदी राजनीति और उससे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के कुंठित हो जाने को संवेदनशील तरीके से उभारा गया। खेलों पर केंद्रित फिल्मों की हालांकि यह नई शुरुआत नहीं थी। पहले भी कुछ फिल्में बनी है जिनमें खेल का हवाला देकर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया गया। इनमें ‘हिप हिप हुर्रे’, ‘जो जीता वही सिकंदर’ जैसी फिल्में विशेष रूप से उल्लेखनीय रहीं।

नौ साल पहले शाहरुख खान की मुख्य भूमिका वाली फिल्म ‘चक दे इंडिया’ ने खेल भावना विकसित करने की अनूठी पहल की। फिल्म में महिला हॉकी टीम को विश्व विजेता बनाने की कल्पना की गई थी जो हालांकि असलियत से कोसों दूर थी। लेकिन फिल्म ने खेलों में पक्षपात, राजनीति और क्षेत्रवाद को दिखाया और रास्ता दिखाया कि कैसे इन बीमारियों को दरकिनार करते हुए एक होकर बड़ी से बड़ी सफलता पाई जा सकती है। खेलों में वैश्विक सफलता पाने का यही रास्ता है। यह अलग बात है कि इस रास्ते को अपनाने की कोशिश कम ही हुई है।

‘चक दे इंडिया’ के बाद कुछ और फिल्में भी खेल पर केंद्रित रहीं। ‘बांबे वेलवेट’ व ‘ब्रदर्स’ में पेशेवर मुक्केबाजी की झलक दिखी। बाकी फिल्मों में प्रधानता क्रिकेट की रही। यह स्वाभाविक है क्योंकि फिल्मों के बाद देश में सबसे ज्यादा लोकप्रिय क्रिकेट ही है। कुछ साल पहले अनजान खिलाड़ी पान सिंह तोमर पर बनी तिंग्माशु धूलिया की फिल्म ने खिलाड़ियों के जीवन पर फिल्म बनाने का मोह बढ़ाया। संजय लीला भंसाली ने बॉक्सर मेरी काम पर और राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने मिल्खा सिंह पर फिल्म बना कर सफलता क्या पाई कि खिलाड़ियों पर कई फिल्में बनाने का एलान हो गया। क्रिकेटर अजहरुद्दीन और महेंद्र सिंह धोनी पर फिल्में बन गईं तो सचिन तेंदुलकर का सफर डॉक्यु ड्रामा के रूप में सामने आया। ‘मेरी काम’ व ‘भाग मिल्खा भाग’ के बाद अजहर और धोनी पर बनी फिल्मों में खेल हस्तियों का चरित्र चित्रण रोचक बनाने के लिए फिल्मी टोटकों का जम कर इस्तेमाल किया। फिल्म को दर्शर्नीय बनाने के लिए ऐसा करना जरूरी हो सकता है लेकिन इससे मूल चरित्र का व्यक्तित्व ठीक से उभर नहीं पाया। ज्यादा ईमानदारी बरती गई ‘पान सिंह तोमर’ में। एक एथलीट की संघर्ष यात्रा को ग्लैमरस रंग देने की कोशिश नहीं की गई।

पिछले कुछ सालों में खेलों की दुनिया में कुछ स्टार दिए हैं। वही फिल्म वालों के फोकस में है। ज्यादा रुचि सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, प्रकाश पादुकोण, विश्वनाथन आनंद आदि पर फिल्म बनाने में ली जा रही है। साइना नेहवाल पर अमोल गुप्ते फिल्म बना रहे हैं। वे बाल फिल्में बनाने के लिए विख्यात हैं। उनका मानना है कि साइना पर फिल्म नई पीढ़ी को प्रेरणा देगी। इस तरह की फिल्मों में अड़चन तब आती है जब निर्माता खिलाड़ी का नाम तो भुनाना चाहते हैं लेकिन उसे पर्याप्त मुआवजा नहीं देना चाहते। मिल्खा सिंह का दावा है कि उन्होंने अपनी जीवनी सिर्फ एक रुपए में बेची थी लेकिन माना जाता है कि उन्हें और मेरी काम दोनों को मुनाफे का हिस्सा मिला। यह चर्चा आम है कि धोनी ने अपनी जीवनी पर फिल्म के एवज में तीस से चालीस करोड़ रुपए लिए हैं। एक पैर से एवरेस्ट फतह करने वाली अरुणिमा सिन्हा की जीवनी पर फिल्म बनाने की फरहान अख्तर की योजना इसलिए खटाई में पड़ गई है क्योंकि अरुणिमा ने बदले में फिल्म की रॉयल्टी में हिस्सा मांग लिया। माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला बछेंद्री पाल पर फिल्म बनाने की योजना भी किसी न किसी वजह से अटकी हुई है।

आमिर खान अपने टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ के एक एपिसोड में कुश्ती की दुनिया में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने वाली हरियाणा की फोगट बहनों से परिचय कराया। सामाजिक बंदिशों के बावजूद अपनी बेटियों व भतीजी को अखाड़े में उतारने की हिम्मत दिखाने वाले महावीर पहलवान की लगन ने आमिर को इतना प्रभावित किया कि वे ‘दंगल’ में महावीर की भूमिका निभाने में जुट गए। उन्हीं की देखा देखी सलमान खान ने ‘सुल्तान’ में पहलवानी की।

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