आयोग की साख

हिमाचल प्रदेश में मतदान की तारीख घोषित किए जाने के समय से ही निर्वाचन आयोग को कई तरफ से आलोचना का सामना करना पड़ा है। उम्मीद थी कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों के लिए तारीखों की घोषणा एक साथ की जाएगी। पर आयोग ने हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात के चुनाव की तारीख घोषित नहीं की। यह नियम और परिपाटी के विपरीत है। आयोग ने हिमाचल के चुनाव नतीजे आने की तारीख भी घोषित कर दी है और यह भी कहा है कि उस तारीख से पहले ही गुजरात के चुनाव संपन्न हो जाएंगे। ऐसे में, गुजरात में मतदान की तारीख अभी घोषित न करना और भी हैरानी का विषय है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस का आरोप है कि केंद्र सरकार के दबाव पर आयोग ने ऐसा किया, ताकि गुजरात में चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले भाजपा को लाभ पहुंचाने वाली कुछ लोकलुभावन घोषणाएं प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कर सकें। दो दिन पहले, गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने कहा कि 2012 में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस के दबाव पर आयोग ने तिरासी दिनों तक आचार संहिता लागू कर रखी थी, ताकि विकास-कार्यों के मामले में तब के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ उतने दिन बंधे रहें। इस तरह के आरोप लगना बेहद अफसोस की बात है।

निर्वाचन आयोग देश की उन गिनी-चुनी संस्थाओं में एक है जिसकी निष्पक्षता और विश्वसनीयता का शानदार रिकार्ड रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसने खूब प्रशंसा अर्जित की है। आयोग की ऐसी प्रतिष्ठा हमारे लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य है। सच तो यह है कि आयोग की साख हमारे जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता के लिए भी जरूरी है। अगर आयोग की निष्पक्षता पर उंगली उठाई जा सकेगी, तो जाहिर है विजयी उम्मीदवार के चुने जाने और किसी राजनीतिक दल को मिले जनादेश पर भी संदेह किया जा सकेगा। इसलिए आयोग की निष्पक्षता और विश्वसनीयता हमारी संसदीय प्रणाली का मूलाधार है। विजय रूपानी के आरोप पर तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत समेत कई पूर्व चुनाव आयुक्तों ने सख्त एतराज जताया है। उनकी नाराजगी स्वाभाविक है। अगर 2012 में आयोग का कोई कदम नागवार गुजरा था, तो उस पर प्रतिक्रिया तभी करनी चाहिए थी, पांच साल बाद उसकी खिंचाई क्यों? बहरहाल, ताजा विवाद जहां दुर्भाग्यपूर्ण है वहीं इसमें एक सबक भी निहित है। मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति करते हैं। इसमें राष्ट्रपति की भूमिका का अलग से कोई खास महत्त्व नहीं है, क्योंकि वे सरकार की सिफारिश को ही मान लेते हैं।

यह सही है कि इस चयन पद्धति के बावजूद एक निष्पक्ष संस्था के रूप में आयोग का उजला इतिहास रहा है। पर अब समय आ गया है कि आयोग में नियुक्तियां केवल सरकार की मर्जी से न हों; इसके लिए एक कोलेजियम या समिति हो, जिसमें सरकार तथा राजनीतिक दलों से बाहर के प्रतिष्ठित लोग भी हों, और विपक्ष के नेता भी। ऐसी समिति द्वारा सुझाए गए नामों में से ही मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों का चयन किया जाए। यह सुझाव समय-समय पर कई बार चर्चा का विषय बन चुका है। यूपीए सरकार के समय भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर आयोग में नियुक्तियों की चली आ रही पद्धति को बदलने तथा एक निष्पक्ष समिति द्वारा आयोग के सदस्यों का चयन किए जाने की मांग उठाई थी। इस साल जुलाई में सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि अगर सीबीआइ प्रमुख के चयन के लिए बाकायदा एक कानून और समिति है, तो चुनाव आयोग के सदस्यों की बाबत ऐसा क्यों नहीं है; संसद को इस पर विचार करना चाहिए। ताजा विवाद की सार्थक परिणति यही हो सकती है कि संसद इस दिशा में सक्रिय हो।

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