फायदे और नुकसान की दलीलें, आम राय है जरूरी

अजय पांडेय

चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव जम्हूरियत का आधार माना जाता है। इस मायने में भारत दुनिया के सामने एक आदर्श है। आजादी के बाद के सात दशकों में भारत के लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग कर गांव की पंचायतों से लेकर नगर निगमों, विधानसभाओं और देश की सबसे बड़ी पंचायत कही जाने वाली संसद तक में अपने मनमाफिक प्रतिनिधि भेजे और अलग अलग सरकारों का गठन किया। सत्तर साल के लोकतांत्रिक सफर में पार्टियां बदलती रहीं और नई-नई सरकारों का गठन होता रहा। बदलाव की इस कवायद में हमारे लोकतंत्र की जड़ें लगातार मजबूत होती गर्इं और आज यह इतनी गहरी हो चुकी हैं कि भारत की जनता लोकतंत्र के अलावा किसी और शासन पद्धति की बात सोच तक नहीं सकती। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि बीते दो-तीन दशकों से लगातार यह बात महसूस की जा रही है कि चुनाव बेहद खर्चीले होते जा रहे हैं। दूसरी बात यह भी है कि बार-बार होने वाले चुनाव की वजह से विकास के पहिए की गति भी प्रभावित हो रही है। इसी वजह से अब यह दलील दी जाने लगी है कि लोकसभा व देश की तमाम विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए।

लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के सबसे बड़े पैरोकार खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। भाजपा के अन्य नेता भी इस विचार के हिमायती हैं। हालांकि इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों से लेकर आम आदमी तक के बीच आम राय कायम होना अभी बाकी है। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने के मुद्दे पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का कहना है कि इस सोच के दोनों पहलू हैं। यदि एक साथ चुनाव कराए जाने के कुछ फायदे हैं तो इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। उनका कहना है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि दोनों चुनाव एक साथ हो जाएं तो बचत के लिहाज से यह बहुत अच्छा होगा। अलग-अलग चुनाव कराने पर होने वाले खर्च के मुकाबले एक साथ चुनाव कराने पर यह खर्च बेहद कम हो जाएगा। दूसरी बात यह भी है कि अलग-अलग चुनाव होने से बार-बार आचार संहिता लागू करनी पड़ती है और इससे विकास कार्य निश्चित रूप से प्रभावित होते हैं। इस लिहाज से एक बार चुनाव होना फायदेमंद है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि संवैधानिक दृष्टि से ऐसा करना मुमकिन नहीं है। इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि जिस प्रकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक बार महज 13 दिनों में गिर गई थी, उसी प्रकार यदि केंद्र की सरकार बहुमत परीक्षण में पराजित हो जाती है तो क्या फिर से लोकसभा के साथ समूचे देश की विधानसभाओं के चुनाव कराए जाएंगे। जाहिर है कि ऐसा करना व्यावहारिक नहीं है।

दिल्ली और चंडीगढ़ के चुनाव आयुक्त रहे राकेश मेहता का कहना है कि वे यह मानते हैं कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने चाहिए। चुनावी खर्च को काबू करने के लिहाज से यह एक अच्छी सोच है। विकास कार्यों की गति के लिहाज से भी यह सोच अच्छी है। लेकिन यह बात सुनने में जितनी अच्छी लगती है उतनी आसान है नहीं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आपको कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। कल्पना कीजिए कि यदि केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव आ जाता है और सरकार गिर जाती है तो क्या होगा। इसी तरह कोई राज्य सरकार बहुमत खो देती है तो अब तक तो यह व्यवस्था है कि वहां छह माह के लिए राष्टÑपति शासन लगाकर इस दरम्यान चुनाव करा लिए जाते हैं। लेकिन जब चुनाव होंगे ही पांच साल पर तो इस बीच उस राज्य की विधानसभा का क्या होगा। शासन व्यवस्था कौन चलाएगा। इन तमाम बातों पर विचार किया जाना जरूरी है। कुछ लोग यह सुझाव भी देते हैं कि स्थानीय निकायों के चुनाव भी एक ही साथ करा देना चाहिए। लेकिन ऐसा करना बिल्कुल गलत होगा।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी एक अहम बात यह भी जोड़ते हैं कि हमारे यहां हर चुनाव के अलग-अलग मुद्दे होते हैं। लोकसभा के लिए मतदान करते वक्त समूचे देश के लोग किन्हीं खास मुद्दों से प्रभावित होते हैं। उनके सामने राष्टÑीय-अंतरराष्टÑीय मुद्दे होते हैं जबकि प्रत्येक राज्य के चुनाव में स्थानीय मुद्दे ज्यादा प्रबल होते हैं। ऐसे में एक ही वक्त मतदाता दो अलग-अलग बातों को ध्यान में रखकर मतदान करेगा इस बात पर भी गौर करना जरूरी है। राकेश मेहता यह मानते हैं कि अब मतदाता इतने जागरूक जरूर हो गए हैं कि मुद्दों को अलग अलग समझ पाएं। फिर भी उनका यह कहना है कि कुछ हद तक इस वजह से भी परेशानी जरूर हो सकती है।बहरहाल, जानकारों का ऐसा मानना है कि लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के मामले में राष्टÑीय स्तर पर सहमति होना बेहद जरूरी है। हर स्तर पर इस मुद्दे पर बहस होनी चाहिए और जब समूचे देश में आम राय कायम हो जाए, सहमति बन जाए, तभी कदम आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

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