भुखमरी से निपटने की चुनौती

दुनिया की 7.1 अरब आबादी में अस्सी करोड़ यानी बारह फीसद लोग भुखमरी के शिकार हैं। बीस करोड़ भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या के साथ भारत इसमें पहले नंबर पर है। यह हाल तब है जब दुनिया में भरपूर अनाज और अन्य खाद्य पदार्थों की पैदावार हो रही है। दुनिया भर में कहीं गृहयुद्ध तो कहीं प्राकृतिक आपदाओं के चलते लोग अपने घरों, अपने देश से दर-बदर हो रहे हैं। अपनी जड़ों से उखड़े ये लोग गरीबी और भुखमरी में जीने को अभिशप्त हैं। इनमें से अधिकतर लोग गरीब देशों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे खाद्य संकट और गहरा रहा है।  खाद्य एवं कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुपोषित लोगों की संख्या 19.07 करोड़ है। यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। देश में 15 से 49 वर्ष की 51.4 फीसद महिलाओं में खून की कमी है। पांच वर्ष से कम उम्र के 38.4 फीसद बच्चे अपनी आयु के मुताबिक कम लंबाई के हैं। इक्कीस फीसद का वजन अत्यधिक कम है। भोजन की कमी से हुई बीमारियों से देश में सालाना तीन हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं। 2016 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 118 देशों में भारत को 97वां स्थान मिला था। देश में 2015-16 में कुल अनाज उत्पादन 25.22 करोड़ टन था। यह 1950-51 के पांच करोड़ टन से पांच गुना ज्यादा है। इसके बावजूद देश में बहुत-से लोग भुखमरी के कगार पर रहते हैं। ऐसा नहीं कि यह पैदावार देश की आबादी के लिए कम है। असल समस्या है अन्न की बर्बादी। देश में अनाज का चालीस फीसद उत्पादन और आपूर्ति के विभिन्न चरणों में बर्बाद हो जाता है। देश में गेहूं की कुल पैदावार में से तकरीबन 2.1 करोड़ टन सड़ जाता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 2013 के अध्ययन के मुताबिक प्रमुख कृषि उत्पादों की बर्बादी से देश को 92.651 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

दुनिया की आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उस हिसाब से खाद्यान्न उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। कई खाद्यान्न और खाद्य पदार्थ अपने सर्वाधिक उत्पादन-स्तर को छूकर अब ढलान की ओर उन्मुख हैं। यानी उनकी पैदावार दर कम हो रही है, जबकि दुनिया की आबादी बढ़ने का सिलसिला जारी है। इनमें अंडे, मांस, सब्जियां, सोयाबीन, गेहूं और चावल समेत इक्कीस खाद्य पदार्थ शामिल हैं। इसे दुनिया की खाद्य सुरक्षा के लिए एक बड़े संकट की तरह देखा जा रहा है। साल 2006 में सर्वाधिक उच्च स्तर छूने के बाद चिकन का उत्पादन धीमा हो गया। दूध और गेहूं ने अपना सर्वाधिक उत्पादन-स्तर 2004 में छू लिया। चावल इससे पहले 1988 में ही सर्वाधिक उत्पादन का रिकार्ड बना कर ढलान की ओर है। ऐसे में इतनी कम समयावधि के बीच कई सारे अहम खाद्य स्रोतों के उत्पादन में गिरावट दुनिया के सामने बड़ी चिंता का विषय है। अनुमान है कि दुनिया की आबादी 2050 में लगभग नौ अरब हो जाएगी। तब मौजूदा खाद्यान्न उत्पादन से दो गुने की जरूरत पड़ेगी। भारत जैसे देशों को अभी से नए उपाय करने होंगे।

साथ ही अपनी आबादी पर भी लगाम लगानी होगी। येल यूनिवर्सिटी, मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी और जर्मनी के हेमहोल्ज सेंटर फॉर एनवायर्नमेंट रिसर्च के एक ताजा संयुक्तअध्ययन के मुताबिक परीक्षण किए गए 21 खाद्यान्नों में से 16 खाद्यान्न स्रोत 1988 से 2008 के बीच अपना सर्वाधिक उत्पादन दे चुके हैं। इसके अलावा दुनिया के सभी लोग अपना पेट भरने के लिए केवल 9 या 10 पादप प्रजातियों पर आश्रित हैं। समस्या यह है कि ये सारे स्रोत अपने उत्पादन का सर्वाधिक स्तर छू चुके हैं। यहां तक कि नवीकृत स्रोत भी हमेशा के लिए रहने वाले नहीं हैं। एक स्रोत के खत्म होने पर दूसरे स्रोत पर निर्भर होने की बात की जाती है, लेकिन जब कई सारे खाद्य स्रोत एक साथ खत्म होने को हों तो किसे विकल्प बनाया जाए? जाहिर तौर पर यह एक बड़ा संकट है। एक ऐसा बिंदु, जहां पर किसी फसल, जंतु या अन्य किसी खाद्य सामग्री की उत्पादन दर मंद पड़ जाती है। इस बिंदु और समय के बाद कुल उत्पादन में लगातार वृद्धि तो होती है लेकिन उत्पादन दर कम हो जाती है। यहीं से चीजें गलत दिशा में जाने लगती हैं। यह स्थिति किसी खतरे की घंटी जैसी होती है।

तेजी से बढ़ रही आबादी अपने आवास, खेती, कारोबार और इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए जमीन का इस्तेमाल कर रही है। कृषि और भोजन के अन्य स्रोतों के लिए जमीन कम होती जा रही है। इसके साथ ही ज्यादा खाद्यान्न पैदा करने के लिए जमीन और पानी का अधिकाधिक इस्तेमाल किया जाने लगा है। लिहाजा, इन संसाधनों के कम होते जाने से भविष्य में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि को बड़ा झटका लग सकता है। कृषिभूमि की उर्वरता और क्षरण को लेकर कई अध्ययन हुए हैं। पर पहली बार अमदाबाद के स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने सत्रह अन्य एजेंसियों की मदद से पूरे देश की कृषिभूमि की दशा का ब्योरा पेश किया है। इसके अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। कुल बत्तीस फीसद भूमि की गुणवत्ता घटी है। वहीं देश की उनहत्तर फीसद जमीन शुष्क क्षेत्र में शुमार की गई है। जमीन की उर्वरता को बचाने का जल्द ही बड़ा अभियान शुरू नहीं किया गया तो देश की आबादी के बड़े हिस्से के लिए न सिर्फ आजीविका का संकट और गहरा जाएगा बल्कि जैव-विविधता का जबर्दस्त नुकसान होगा।

अब तक राजस्थान और कुछ हद तक गुजरात को रेगिस्तान के लिए जाना जाता है। मगर यह अध्ययन बताता है कि रेगिस्तान की प्रक्रिया बर्फीली वादियों और जंगलों के लिए मशहूर जम्मू और कश्मीर तक में चल रही है। राजस्थान का 21.77 फीसद, जम्मू व कश्मीर का 12.79 फीसद और गुजरात का 12.72 फीसद क्षेत्र रेगिस्तान बन चुका है। गुजरात की सरकार ने कुछ ठोस कार्य किए हैं जिनका लाभ अन्य राज्य उठा सकते हैं। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के एक शोधपत्र में बताया गया है कि गुजरात में 2000 से कृषि मूल्यवर्धन 9.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है जो भारत की विकास दर के मुकाबले दोगुने से भी अधिक है और पंजाब में हरित क्रांति के दौरान हासिल की गई विकास दर के मुकाबले अधिक है। इसके अलावा हजारों की संख्या में चेक डैम बनाए गए हैं, ड्रिप सिंचाई को बढ़ावा दिया गया है और ग्रामीण क्षेत्रों मेंं सड़क नेटवर्क में भारी बढ़ोतरी की गई है। सिंचित क्षेत्र में हर साल 4.4 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हो रही है और करार खेती से विपणन में मदद मिली है।

अगले चालीस सालों में देश की आबादी 160 करोड़ से ऊपर हो जाएगी। इसके साथ ही खाद्यान्न की हमारी मांग भी लगभग दोगुनी बढ़ जाएगी। पर कृषि के विस्तार के लिए हमारे पास बहुत सीमित संभावनाएं बची हैं। पिछले पच्चीस वर्षों में कृषि में निवेश घटता रहा है। जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) फसलों के अलावा कृषि पर शोध भी ज्यादा नहीं हो रहा। हरित क्रांति के दौरान हमने फसलों की पैदावार तीन से छह फीसद तक बढ़ा ली थी, अब यह बस एक फीसद की रफ्तार से बढ़ रही है। कुछ जगह तो इस पर विराम ही लग गया है। विशेषज्ञों के अनुसार, मांग के मुताबिक मौजूदा खाद्यान्न उत्पादन का दोगुना लक्ष्य हासिल करना मुश्किल है। लिहाजा, हमें खान-पान की शैली में बदलाव के साथ मितव्ययी तरीके अपनाने होंगे।

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