मथुरा के सेठ लख्मी चंद ने दो बार खरीदा था ताजमहल, जनता के प्रतिरोध के कारण नहीं ले पाए थे कब्जा

अशोक बंसल 

आगरा के विश्व प्रसिद्ध ताजमहल को बुरी नजर से देखने और आलोचना करने का फितूर नया नहीं है। कभीगोरी हुकूमत ने इसे नेस्तनाबूद कर दौलत कमाने के सपने देखे थे। अंग्रेजों ने इसे दो बार बेचने की कोशिश की। कवियों की कल्पना को मात देने वाले ताजमहल को मथुरा के सेठ लख्मी चंद ने दोनों बार खरीद तो लिया, लेकिन जनता के विरोध के कारण कब्जा न ले सके। लख्मी चंद ने ताजमहल को पहले डेढ़ लाख रुपए में और दूसरी बार सात लाख रुपए में खरीदा। यह बात सन 1831 की है।  इतिहासकारों के मुताबिक, मुगल बादशाह शाहजहां ने ताजमहल को सन 1632 में बनवाना शुरू किया था। 21 साल तक 25 हजार मजदूर उस जमाने के जाने-माने पेंटरों और कलाकारों के साथ रात-दिन इसे तामीर करने में जुटे रहे। आज ताजमहल के आसपास की बस्तियों में जो बाशिंदे हैं, वे इस अजूबे को बनाने वाले मजदूरों के वंशज ही हैं।

बहरहाल, पिछले दिनों भाजपा के कुछ नेताओं द्वारा ताजमहल के खिलाफ की गई बयानबाजी ने दुनिया भर के ताजप्रेमियों को मानो सोते से जगा दिया है। फिरंगी जमाने में ऐसा ही एक तूफान गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंग की हरकतों से आया था। बेंटिंग हिंदुस्तान में सिर्फ दो साल 1833 से 1835 तक रहा। उसेमुगलिया इमारतों में कोई कलात्मकता जैसी चीज नजर ही नहीं आती थी। हां, इमारतों में जड़ी कीमती चीजों पर उसकी बुरी नजर जरूर रहती थी। उसने कीमती पत्थरों को इंग्लैंड ले जाने की योजना बनाई। उसने अपने खास मथुरा के सेठ लख्मी चंद को मात्र डेढ़ लाख रुपए में ताजमहल की मिल्कियत सौंप दी। अंग्रेजपरस्त सेठजी बड़ी शान-शौकत से जब ताजमहल पर कब्जा लेने आगरा गए तो ताजमहल के आसपास रहने वाले बाशिंदों ने इसका जबरदस्त विरोध किया और उन्हें बैरंग लौटा दिया।

दरअसल, विरोध करने वाले लोग वे लोग थे, जिनके पूर्वजों ने इसके निर्माण में रात-दिन लगाए थे। बेंटिंग आहत जरूर हुआ। लेकिन उसने ताजमहल को बेचने के मनसूबों को अपने सीने में दबाए रखा। बेंटिंग ने बाकी पेज 8 पर अपनी योजना को नया रूप देते हुए कलकत्ता के एक अखबार में ताजमहल की नीलामी का विज्ञापन प्रकाशित कराया और नीलामी की तारीख तय की- 26 जुलाई 1831। सेठ लख्मी चंद के वंशज विजय सेठ ने जनसत्ता को बताया: हमारे पूर्वज लख्मी चंदजी ने ताजमहल को नष्ट होने से बचाया। तब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। कंपनी को पैसे की जरूरत थी। सो, आगरा में सात महत्त्वपूर्ण स्थानों की नीलामी हुई थी। उसमें ताजमहल भी था। पांच स्थान की बोली की रकम में सेठजी अव्वल थे। अगर ब्रिटिश संसद ताजमहल की बिक्री पर रोक न लगाती तो ताज के मालिक हमारे पूर्वज ही होते। अब ताज हमारा नहीं देश की जनता का है और हर सूरत में इसकी हिफाजत होनी चाहिए।

इतिहासकार आर रामनाथ और अंग्रेजी लेखक एचजी केंस के मुताबिक, तय तारीख पर बोली लगाने के लिए मथुरा और राजस्थान के कई सेठ आगे आए, लेकिन मथुरा के सेठ लख्मी चंद की सात लाख की बोली सबसे ऊपर रही। बेंटिंग को यह रकम बहुत कम लगी। यह बोली निरस्त कर दी गई और ताजमहल इस बार भी न बिक सका। जिद्दी लार्ड ने ताजमहल की बिक्री की योजना को यहीं विराम नहीं दिया। वह अपने हिंदुस्तानी सेठ-साहूकारों से इस बाबत बातचीत करता रहा ताकि ताजमहल की ज्यादा से ज्यादा कीमत वसूली जा सके। मजेदार बात यह है कि इतिहास में बेजुबान ताजमहल को नेस्तनाबूद करने वाले हमेशा रहे हैं तो इसके रक्षकों की भी कमी नहीं रही। ताजमहल को बेचने के लार्ड विलियम बेंटिंग के मनसूबों की खबर किसी तरह इंग्लैंड की संसद तक पहुंच गई। इतिहास में लंदन तक खबर पहुंचाने वाले का नाम अज्ञात है। लंदन की संसद ने बेंटिंगकी इस योजना को मूखर्तापूर्ण योजना का दर्जा देकर ऐसा न करने की हिदायतें दीं।

इसके बाद सात फरवरी 1900 को लार्ड कर्जन ने ताजमहल परिसर में हिंदुस्तानी अमीरों को बुलाकर कीमती पेंटिंग और ताजमहल की दीवारों में जड़े पत्थरों को नीलाम कर दिया। कहते हैं कि लार्ड वारेन हेस्टिंग की बुरी नजर से भी ताज नहीं बचा। हेस्टिंग ताजमहल की दीवारों में जड़े हीरे-मोतियों को निकालकर इंग्लैंड ले गया। अंग्रेज जब तक भारत में रहे, ताज की तकदीर अधर में रही। देश के आजाद होने के बाद भारत सरकार ने ताज को फिर शान बख्शी और आज वह दुनिया के बेमिसाल अजूबे के तौर पर विख्यात है।

हमारे पूर्वज लख्मी चंदजी ने ताजमहल को नष्ट होने से बचाया। तब ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था। कंपनी को पैसे की जरूरत थी, सो आगरा में सात महत्त्वपूर्ण स्थानों की नीलामी हुई थी। उसमें ताजमहल भी था। पांच स्थान की बोली की रकम में सेठजी अव्वल थे। अगर ब्रिटिश संसद ताजमहल की बिक्री पर रोक न लगाती तो ताज के मालिक हमारे पूर्वज ही होते।

-विजय सेठ, सेठ लख्मी चंद के वंशज

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