सूरज को दीया दिखाने का लोक पर्व
सूरज, नदी, माटी, खेत-खलिहान मिलकर भारत का लोक रचते हैं और लोक की प्रकृति के प्रति आस्था का पर्व है छठ। ब्राह्मण मंत्रों और किसी पुरोहिताई के बिना प्रकृति प्रदत्त चीजों के साथ प्रकृति को अर्पण। भारत में सूर्य की उपासना का संदर्भ ऋग्वैदिक काल से मिलता है और मध्यकाल में आकर छठ पूजा का वह स्वरूप दिखता है जो आज वर्तमान रूप में पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी यूपी और नेपाल के तराई क्षेत्र में मनाया जाता है।
छठ और छठी मैया
छठ शब्द षष्ठी का अपभ्रंश है। कार्तिक शुक्ल पक्ष के पष्ठी को मनाए जाने के कारण इसे छठ पर्व कहा गया। कुछ दंतकथाओं में सूर्यदेव और छठी मैया का संबंध भाई-बहन का है। वहीं बिहार की गृहिणी रेखा सहाय बताती हैं कि हमारे इलाके में प्रचलित कथाओं में सूर्य और छठी मैया का संबंध मां-बेटे का है। सूर्य को शंकर और पार्वती का पुत्र माना जाता है।
एक बार सूर्य पर बड़े राक्षस का संकट आ गया था। शंकर और पार्वती ने गंगा नदी से विनती की कि वह सूर्य की रक्षा करें। राक्षस से बचाने के लिए गंगा ने सूर्य को अपनी गोद में समेट लिया, फिर भी वह बचा नहीं पार्इं और सूर्य को राक्षस उठा ले गया। इसके बाद गंगा को सूर्य से पुत्रमोह हो गया और वह सूर्य को अपना बेटा बनाने की कामना से भर उठी। गंगा का सूर्य के प्रति इतना मोह पार्वती को पसंद नहीं आता है। लेकिन सूरज के मोह के कारण गंगा मां के रूप में पूजी जाने लगती हैं।
गंगा नदी में खड़े होकर उनके बेटे को अर्घ्य दिया जाता है। गंगा के साथ ही दूसरी नदियों और जल के अन्य स्रोतों में भी सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा शुरू हुई। सूर्य की दो पत्नियां उषा और प्रत्यूषा उनकी दो शक्तियां मानी गई हैं। इसलिए शाम की आखिरी किरण से उषा और सुबह की पहली किरण से प्रत्यूषा को अर्घ्य दिया जाता है। यह साल में दो बार-एक बार चैत्र और दूसरे कार्तिक में – मनाया जाता है। लेकिन कार्तिक वाले छठ को मनाने वालों की संख्या बड़ी है। सूरज को दीया दिखाना एक मुहावरा है जो परंपरा में शायद छठ के मौके पर ही किया जाता है। हमारी प्रकृति के लिए सूर्य ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है और कहा जाता है कि छठ व्रती अपने लोककर्म के लिए सूर्य से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। पारंपरिक रूप से इस व्रत को महिलाएं ही करती हैं इसलिए छठव्रत करने वाली महिलाओं को भी छठी मैया के प्रतीक के रूप में देखा जाता है और व्रती महिलाएं अन्य लोगों के लिए पूजनीय होती है। छठव्रती के पैर छूना, व्रत के दौरान उनकी सेवा करना उस परंपरा का प्रतीक है जिसमें लोक ही पूजनीय है। कोई कथा-पुराण नहीं, पुरोहित नहीं बस व्रती की ही महिमा है।
रामायण-महाभारत में उल्लेख
पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक, सूर्यवंशी श्रीराम जब लंका विजय के बाद लौटे तो उन्होंने अपने कुलदेवता सूर्य की आराधना की। अयोध्या में सरयू नदी के तट पर उपवास रखने के बाद अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने के बाद से कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को यह व्रत मनाने की परंपरा शुरू हुई। सप्तमी को सूर्योदय के बाद राम-सीता ने फिर से सूर्योपासना की। वहीं छठ पर्व को महाभारत के साथ भी जोड़ा जाता है। दुर्योधन ने कर्ण को अंगप्रदेश (वर्तमान भागलपुर) का राजा बनाया था। कर्ण प्रतिदिन नदी में खड़े होकर सूर्य की उपासना करते थे जिसके बाद उनकी प्रजा भी इसे करने लगी। कुंती से लेकर द्रौपदी तक के छठ पर्व करने का उल्लेख मिलता है। राजा प्रियंवद और उनकी पत्नी मालिनी के भी संतान प्राप्ति के लिए छठ करने का पौराणिक जिक्र है। संतान की कामना से जुड़ा छठ का यह पर्व आज सर्वकाममना की पूर्ति के लिए मनाया जाता है।