फिल्मों से छिन गई पारंपरिक मां!
फर्क यह आया है कि पहले की फिल्मों में मां केंद्रीय भूमिका में भी नजर आ जाती थी। पूरी फिल्म उसी के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन इस तरह की फिल्मों में अक्सर स्टीरियोटाइप मां की जगह उस समय की कोई चर्चित अभिनेत्री मां की भूमिका में होती थी। आराधना में शर्मिला टैगोर, होली आई रे में माला सिन्हा आदि ने मां बन कर ख्याति पाई। उस दौर की फिल्मों में मां को केंद्रित कर गीत भी रखे जाते थे। तू कितनी प्यारी है ओ मां (राजा और रंक), ए मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी (दादी मां), मेरी दुनिया है मां तेरी आंचल में (तलाश) तो कुछ मिसाल हैं।
मां मैं पास हो गया’ इठलाता हुआ हीरो कच्चे पक्के छोटे से कमरे में दाखिल होता है। कोने में बैठी अंधी या अपाहिज बहन खुश हो जाती है। खटपट करती सिलाई मशीन पर कांपते हाथों से सिलाई कर रही बूढ़ी मां उठती है। टूटी कमानी वाली एनक उतार कर पैबंद लगी धोती से आंसू पोछती है। हीरो को दीवार पर लगी फोटो के पास ले जाती है, कहती है- ‘आज तेरे पिता जिंदा होते तो बहुत खुश होते। आज इस तरह के दृश्य लोगों को भावुक नहीं कर पाते लेकिन चालीस के दशक से सत्तर अस्सी के दशक तक ऐसे दृश्य फिल्म में मार्मिकता भर देते थे।
इसी तरह सैकड़ों फिल्मों में दोहराया गया एक और दृश्य। पति जो आमतौर पर हीरो का पिता या कभी कभी बड़ा भाई होता है, कुछ मक्कार लोगों के उकसाने पर बदचलन होने का आरोप लगा कर पत्नी को घर से निकाल देता है। कुछ फिल्मों में पति की आपराधिक प्रवृत्तियों के विरोध में पत्नी घर छोड़ देती थी। हीरो के बड़े होने पर बड़े ही नाटकीय अंदाज में मां उसके पिता की पहचान बताती है और वह गलतफहमी दूर करता है। चालीस के दशक में शुरू हुआ पारिवारिक मेलोड्रामा पचास साल तक चला। केंद्र में मां होती थी। भरा पूरा सुखी परिवार मुखिया की मौत के बाद बिखर जाता है। बेटे अपनी पत्नी के बहकावे पर मां पर अत्याचार करते हैं। एक आदर्श बेटा स्थिति सुधारने की कोशिश करता है और दुष्टों को उनके किए की सजा देता है। तभी मां बीच में आ जाती है। हीरो को ही मारती है और कोसती है- ‘तुझ जैसा नालायक बेटा कोख में ही क्यों नहीं मर गया।
पिता पुलिस अफसर और बेटा अपराधी। उस स्थिति में मां दुविधा में फंस जाती है कि किसका साथ दे। ऐसी फिल्में भी बहुत बनीं जब खलनायक के हाथों पति की मौत का बदला लेने के लिए मां बेटे को ललकारती है। राखी गुलजार इस तरह की मां बनने में काफी सिद्धहस्त रहीं। पहली ही रील में मां का पति से बिछड़ना, बच्चों का बंट जाना भी कई फिल्मों का फॉर्मूला रहा है। इन दृश्यों की याद करें तो प्रतिमा देवी, लीला चिटनिस, सुलोचना, निरुपा राय, इंद्राणी मुखर्जी, सीमा देव और कई जानी अनजानी अभिनेत्रियों के चेहरे सामने आ जाते हैं। मदर इंडिया, शक्ति, त्रिशूल, दाग, आराधना, दीवार, हम साथ साथ हैं, सौगंध, गॉड मदर जैसी फिल्में तो कुछ मिसाल हैं।
फिल्मों में मां का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है। लेकिन अब ज्यादातर फिल्मों में मां शो पीस हैं। फिल्मों का मिजाज बदलना इसकी बड़ी वजह है। अब फिल्में भावुकता में बहने की बजाए जिंदगी को व्यावहारिक नजरिए से देखने लगी हैं। इसीलिए फिल्मों में मां की भूमिका बदल गई है। इसका एक फायदा यह हुआ है कि फिल्मी मां की एकरूपता खत्म हो गई है। अब फिल्मी मां संवेदनशील होते हुए भी व्यावहारिक और अपने फैसले खुद करने में सक्षम हो गई है। परंपराओं में बंधे रह कर सिसकते रहने की बजाए वह विषम परिस्थितियों का मुकाबला करने की हिम्मत दिखा रही है। महबूब खान ने मदर इंडिया में मां का जो स्वावलंबी रूप दिखाया था उसे अब फिल्मी मां विस्तार दे रही हैं। यह अलग बात है कि पहले की तुलना में आज की फिल्मों में मां की उपस्थिति कम हो गई है। हम साथ साथ हैं की रीमा लागू, देवदास की किरण खेर, वक्त की शेफाली शाह, इंगलिश विंगलिश की श्रीदेवी, मारग्रीटा विद ए स्ट्रा की रेवती फिल्मी मां की बदलती हुई पहचान की कुछ मिसाल हैं।
पिछले कुछ सालों में फिल्मों का बुनियादी ढांचा काफी तेजी से बदला है। फिल्मों का अनिवार्य अंग रहे चरित्रों की उपयोगिता खत्म हो गई है। सास, सखी, दोस्त, कैबरे डांसर व रामू काका जैसे चरित्र गायब होते जा रहे हैं। हीरो देवता नहीं रह गया है और हीरोइन सती सावित्री की लक्ष्मण रेखा को लांघ चुकी है। ऐसे में मां का महत्त्व कम जरूर हो गया है लेकिन खत्म नहीं हुआ है। हो भी नहीं सकता। रिश्तों की डोर से फिल्मों का नाता नहीं टूट सकता। फिल्मों में मां भले ही कम नजर आए लेकिन इतना निश्चित है कि हर बार उसका नया अंदाज दिखेगा।