दीनदयाल उपाध्याय मानते थे- “भारतीय मुसलमानों की सोच बदलते ही पाकिस्तान मिलते देर नहीं लगेगी”
क्या आपको लगता है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश फिर से एक देश बन सकते हैं? सन् 1947 से पहले तक ये तीनों देश एक ही मुल्क के अंग थे। आप ऐसा सोचते हों या न सोचते हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय ऐसा जरूर सोचते थे। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) गठबंधन के केंद्र में साल 2014 में केंद्र में सत्तासीन होने के बाद से पार्टी ने सबसे ज्यादा जिस बुद्धिजीवी की चर्चा की है वो हैं दीनदयाल उपाध्याय। बीजेपी ने दीनदयाल जन्मशति वर्ष धूमधाम से मनाया। प्रधाननमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर उन्हें अपने भाषणों में उद्धृत करते रहते हैं। दीनदयाल उपाध्याय का 25 सितंबर 1916 को यूपी के मथुरा में जन्म हुआ था। 11 फरवरी 1968 को उनका मुगलराय में रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हो गयी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े उपाध्याय भारतीय जन संघ के अध्यक्ष थे। भारतीय जन संघ का 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया था। 1980 में जनता पार्टी टूट गयी और भारतीय जन संघ ने भारतीय जनता पार्टी नाम से अलग पार्टी बना ली। आइए देखते हैं दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसमलानों की स्थिति को लेकर क्या राय रखते थे। दीनदयाल उपाध्याय ने 24 अगस्त 1953 को पांचजन्य अखबार में “अखंड भारत: ध्येय और साधन” नामक लेख में अपने विचार व्यक्त किए थे। ध्यान रखें कि उपाध्याय ने जब ये लेख लिखा तब बांग्लादेश का गठन नहीं हुआ था। पढ़ें दीनदयाल उपाध्याय के उस लेख का एक अंश।
पढ़िए दीनदयाल उपाध्याय के अखंड भारत पर लिखे लेख का अंश-
….सन् 1947 की पराजय भारतीय एकतानुभूति की पराजय नहीं अपितु उन प्रयत्नों की पराजय है जो राष्ट्रीय एकता के नाम पर किए गए। हम असफल इसलिए नहीं हुए कि हमारा ध्येय गलत था बल्कि इसलिए कि मार्ग गलत चुना। सदोष साधन के कारण ध्येय सिद्धि न होने पर ध्येय न तो त्याज्य ही ठहराया जा सकता है और न अव्यवहारिक ही। आज भी अखंड भारत की व्यवहारिकता में उन्हीं को शंका उठती है जिन्होंने उन दोषयुक्त साधनों को अपनाया तथा जो आज भी उनको छोड़ना नहीं चाहते।
अखंड भारत के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा मुस्लिम संप्रदाय की पृथकतावादी एवं अराष्ट्रीय मनोवृत्ति रही है। पाकिस्तान की सृष्टि उस मनोवृत्ति की विजय है। अखंड भारत के संबंध में शंकाशील यह मानकर चलते हैं कि मुसलमान अपनी नीति में परिवर्तन नहीं करेगा। यदि उनकी धारणा सत्य है तो फिर भारत में चार करोड़ मुसलमानों को बनाए रखना राष्ट्रहित के लिए बड़ा संकट होगा। क्या कोई कांग्रेसी यह कहेगा कि मुसलमानों को भारत से खदेड़ दिया जाए? यदि नहीं तो उन्हें भारतीय जीवन के साथ समरस करना होगा। यदि भौगोलिक दृष्टि से खंडित भारत में यह अनुभूति संभव है तो शेष भू-भाग को मिलते देर नहीं लगेगी। एकता की अनुभूति के अभाव में यदि देश खंडित हुआ है तो उसके भाव से वह अब अखंड होगा। हम उसीके लिए प्रयत्न करें। किंतु मुसलमानों को भारतीय बनाने के अलावा हमें अपनी तीस साल पुरानी नीति बदलनी पड़ेगी। कांग्रेस ने हिंदू मुस्लिम एक्य के प्रयत्न गलत आधार पर किए। उसने राष्ट्र की और संस्कृति की सही एवं अनादि से चली आनेवाली एकता का साक्षात्कार किया तथा अनेकों को कृत्रिम तथा राजनीतिक सौदेबाजी के आधार पर एक करने का प्रयत्न किया। भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि सभी की कृत्रिम ढंग से रचना की। ये यत्न कभी सफल नहीं हो सकते थे। राष्ट्रीयता और अराष्ट्रीयता का समन्वय संभव नहीं।
यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोलकर गंगा की धवल धारा में एकरूप हो जाएगी। किंतु इसके लिए भी भागीरथ के प्रयत्नों की निष्ठा एवं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति, की मान्यता लेकर हमने संस्कृति और राष्ट्र की एकता का अनुभव किया है। हजारों वर्षों की असफलता अधिक है। अत: हमें हिम्मत हारने की जरूरत नहीं। यदि पिछले सिपाही थके हैं तो नए आगे आएँगे। पिछलों को अपनी थकान को हिम्मत से मान लेना चाहिए, अपने कर्मों की कमजोरी स्वीकार कर लेनी चाहिए लड़ाई जीतेंगे ही नहीं यह कहना ठीक नहीं। यह हमारी आन और शान के खिलाफ है, राष्ट्र की प्रकृति और परंपरा के प्रतिकूल है।