राजनीति में युवा

हमारा देश पैंसठ फीसद युवाओं का देश है। दुनिया के सबसे जवान मुल्क के बतौर हमारे सपने और आकांक्षाएं भी सुस्त नहीं हैं। हम तेज तरक्की और अधिक भागीदारी चाहते हैं। देश के तमाम क्षेत्रों से आवाज उठ रही है कि युवाओं को मौका मिलना चाहिए। अब अगर बात राजनीति की हो तब यह आवाज और भी मुखर हो जाती है। वर्तमान लोकसभा में युवा सांसदों की ठीक-ठाक संख्या को देख कर स्थिति निराशाजनक नहीं लगती। देश में युवा नेतृत्व पैदा हो रहा है। मगर ध्यान देने वाली बात है कि वह कहां से पैदा हो रहा है! अधिकतर युवा नेता परिवारवाद की प्रयोगशाला से निकले हैं। इन्होंने न तो राजनीति को एक जुनून की तरह लिया, न आम इंसानों की तरह शासन की कमियों के शिकार हुए और न कभी सड़कों पर आंदोलित हुए।

इनकी राजनीति इनके बड़े-बुजुर्गों के सियासी हित सुरक्षित रखने और पारिवारिक जागीर को बचाए रखने का प्रयास ज्यादा लगती है। अर्थात ऐसे नेतृत्व को घिसे-पिटे और थके-हारे पारंपरिक नेताओं का युवा संस्करण कहना कुछ खराब नहीं होगा। ऐसे में एक युवा, जिसके पीछे ‘फादर’ और ‘गॉडफादर’ का साया नहीं है, राजनीति में जाना चाहता है, वह क्या करे? कई दिग्भ्रमित और निराश होकर मैदान छोड़ देते हैं और जो नहीं छोड़ना चाहते उन्हें कुछ और ही सोचना पड़ता है। राजनीति में कदम रखने की उनकी कवायद कई बार कानून-व्यवस्था को चुनौती तो देती ही है, अलगाव का बीज भी बोती है। धन-जन संसाधन से लैस परिवारवादी नेताओं के बच्चों के बरक्स खुद को स्थापित करने के लिए ये अक्सर भावना के ज्वार में बहते और बहाते हैं ताकि इन्हें एक पुख्ता पहचान मिल सके।

हमें नौ फरवरी 2016 की जेएनयू की घटना को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखने की जरूरत है। कन्हैया को देश के उन तमाम ऊर्जावान युवाओं का चेहरा मानिए जो राजनीति में उतरना चाहते हैं मगर पहले से जड़ें जमाए लोग उन्हें घुसने नहीं देते। लिहाजा, उन्हें गलत रास्ता अख्तियार करना पड़ता है। नारे किसने लगाए और लगवाए इसकी जांच रिपोर्ट अब तक स्पष्ट नहीं हुई मगर घटना के बाद कन्हैया की प्रतिक्रिया बताती है कि फायदे के लिए उन्होंने अलगाववाद का सहारा लिया। व्यवस्था की आलोचना करते-करते देश की आलोचना की है।

दूसरी ओर हार्दिक पटेल जैसे लोग हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न पटेलों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने की अव्यावहारिक, गैरजरूरी मगर भावुक राजनीति करके केंद्र-राज्य की सरकारों की नाक में दम कर रहे हैं। जिग्नेश मेवाणी और भीम आर्मी के चंद्रशेखर जैसे कट्टर राजनीति के समर्थक युवाओं का आना परिवारवाद की राजनीति की प्रतिक्रिया है और युवा नेतृत्व में सौ फीसद वंशवादी राजनीति का कड़ा प्रतिरोध भी। आज जब देश में आर्थिक सुधार लागू हो रहे हैं, राजनीतिक सुधारों के लिए ‘एक देश, एक चुनाव’ की बात चल रही है, देश की राजनीति को गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के राजनीति में रुझान रखने वाले ऊर्जावान युवाओं के विषय में गंभीरता से सोचना होगा। अगर वक्त रहते सोचा नहीं गया तो राजनीतिक रुझान वाले दर-दर भटके युवा देश की गाड़ी का रास्ता भटकाते रहेंगे!

’अंकित दूबे, जेएनयू, नई दिल्ली

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