जीएसटी की उधड़ती परतें
पी. चिदंबरम
माल एवं सेवा कर (जीएसटी) की परिकल्पना अच्छी थी, और अच्छी है। यह ऐसी कर-प्रणाली है जो थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ एक सौ साठ देशों में लागू है, पर बुनियादी सिद्धांत यह है कि अगर कोई छूट या रियायत न दी जाए, तो यह सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक दर वाली कर-प्रणाली है। मुख्य आर्थिक सलाहकार ने आरएनआर (यानी रेवेन्यू न्यूट्रल रेट- राजस्व तटस्थ दर, ऐसी दर जिससे जीएसटी के तहत केंद्र और राज्यों को राजस्व का नुकसान न हो) की बाबत सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में 15 या 15.5 फीसद दर की सिफारिश की थी। वैट से जीएसटी और सेवा कर से जीएसटी की तरफ संक्रमण के कठिन रास्ते को ध्यान में रखते हुए उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि ऐसी दो श्रेणी की जरूरत हो सकती है- आरएनआर के बगैर, और आरएनआर के सहित। इससे संक्रमण को सुचारु बनाते हुए जीएसटी के बुनियादी सिद्धांत को कायम रखा जा सकता था।
यह सही जीएसटी नहीं
राजग/भाजपा सरकार ने सही जीएसटी के सिद्धांत का उल्लंघन किया, मुख्य आर्थिक सलाहकार की रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया और एक अपना जीएसटी तैयार किया। आद्याक्षरों से नाम गढ़ने की अपनी दिलचस्पी के चलते भाजपा इसे जीएसटी के बजाय कोई और नाम दे सकती थी, क्योंकि जो कर-विधान हमें मिला वह सही जीएसटी नहीं है और न ही वह ‘गुड ऐंड सिंपल टैक्स’ है। राहुल गांधी ने इसे ‘गब्बर सिंह टैक्स कहा’ है, यह लेबल इस पर चिपक गया है। इस लेबल को हटाने के लिए बहुत कुछ करना होगा। जीएसटी और उसका क्रियान्वयन कई मामलों में खामियों से भरा है- अवधारणा, डिजाइन और दरों से लेकर इसके दायरे में वस्तुओं तथा सेवाओं को शामिल करने व बाहर रखने की कसौटी, रियायत या छूट का पैमाना, अनुपालन संबंधी जरूरतों, इन्फ्रास्ट्रक्चर, तैयारी और प्रशिक्षण वगैरह तक। जो जीएसटी 1 जुलाई 2017 को लागू किया गया उसमें कुछ भी ठीक नहीं था।
खामियों से भरे जीएसटी के स्वरूप और हड़बड़ी में किए गए उसके क्रियान्वयन के नतीजे सबके सामने हैं। सबसे ज्यादा खमियाजा भुगत रहे हैं छोटे व मझोले उद्यमी, खासकर जो मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े हैं। बहुत-से सूक्ष्म व लघु उद्यम बंद हो गए हैं (जो कि स्वरोजगार के स्रोत हैं)। तमाम छोटे उद्यम (अमूमन जिनमें परिवार के सदस्य ही काम करते हैं) अपना वजूद बनाए रखने के लिए जूझ रहे हैं और उनमें से बहुत-से बंद भी हो गए हैं, और उनमें अपने दिन फिरने की बहुत कम उम्मीद बची है। मझोले उद्यम (जो कि नब्बे फीसद गैर-कृषि श्रमिकों के लिए रोजगार के स्रोत हैं) मुश्किल से चल पा रहे हैं, और उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है: उत्पादन में कटौती करके, श्रमिकों की संख्या घटा कर, अतिरिक्त कार्यशील पूंजी के लिए उधार का सहारा लेकर। यही नहीं, उन्हें जीएसटी कानून के अनुपालन के सिलसिले में, पेशेवर मदद के मद में, काफी पैसा खर्च करना पड़ रहा है, और वे बराबर टैक्स-अधिकारियों के भय में जी रहे हैं।
सरकार ने जीएसटी कानून पर संसद में बहस के दौरान हुई आलोचना को बड़े दंभ के साथ खारिज कर दिया था। उसने कर-कानून के जानकारों और कारोबारी संघों के सदाशयी सुझावों को दरकिनार कर दिया। उसने कानून का स्वरूप तय करने और उसके क्रियान्वयन में सिर्फ नौकरशाहों पर भरोसा किया, जिन्होंने कोई कारोबार शुरू करने या किसी कारोबार को मदद करने में अपनी जेब से कभी एक पैसे का भी जोखिम नहीं उठाया था। नतीजा है अनगिनत खामियां और कारोबारियों तथा उपभोक्ताओं के लिए ढेर सारी मुश्किलें।
संभालने की जद््दोजहद
ऐसा लगता है कि सरकार की नींद तभी टूटी, जब ‘कर समस्या’ के ‘राजनीतिक समस्या’ बन जाने का खतरा मंडराने लगा। अब सरकार जीएसटी की समस्याओं के ‘हल’ निकालने के लिए हाथ-पांव मार रही है। उसकी बेचैनी जाहिर है: देखें कि 1 जुलाई 2017 से, जब से जीएसटी लागू हुआ, चार महीनों के दौरान, किस तादाद में फेरबदल किए गए, कितनी बार निर्णय स्थगित किए गए और कितनी बार छूटें घोषित की गर्इं। और वह सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ है; कुछ और समस्याओं के ‘हल’ के लिए जीएसटी परिषद की एक और बैठक 11 नवंबर 2017 को होगी, और मेरी बात का विश्वास करें, उपर्युक्त उद््देश्य के लिए यह आखिरी बैठक नहीं होगी!
मैंने हिसाब लगाया तो पाया कि दरों में सत्ताईस बार कटौती की गई, दरों की बाबत सात बार आदेश जारी किए गए, बाईस मामलों में छूट घोषित की गई, एक मामले में कर-माफी दी गई, और कर जमा करने की समय-सीमा पंद्रह बार बढ़ाई गई। जीएसटी-नियमों में ग्यारहवां संशोधन 28 अक्तूबर, 2017 को किया गया। कई फेरबदल डिजाइन व ढांचे से संबंधित उन गलतियों को दुरुस्त करने के लिए किए गए जो एकदम जाहिर थीं, खासकर जिनका ताल्लुक छोटे व मझोले उद्यमियों के लिए किए गए प्रावधानों से था। कुछ फेरबदल असल में रिवर्स चार्ज, टीडीएस/टीसीएस तथा ई-वे बिल सिस्टम को लागू करने जैसे विवादास्पद या जटिल प्रावधानों को मुल्तवी रखना था। यह समझदारी छोटे व मझोले उद्यमों को चार महीनों तक तमाम परेशानियों का शिकार बनाए रखने के बाद आई!
कायापलट की जरूरत
हालांकि कुछ चीजें फौरन सुलझाई नहीं जा सकतीं- मसलन, कर की बहुस्तरीय दरें, एचएसएन वर्गीकरण, बिजली और पेट्रोलियम पदार्थों को कर के दायरे से बाहर रखना, शृंखलाबद्ध नकारात्मक प्रभाव, ‘पहले भुगतान करो, बाद में अतिरिक्त राशि (रिफंड) वापस लो’ नियम तथा द्वितंत्रीय नियंत्रण। इन सब चीजों में बदलाव के लिए जीएसटी के मौजूदा ढांचे और जीएसटी कानून में जोड़े गए संशोधनों के पूर्ण कायापलट की जरूरत है। लगता है यह बात सरकार की समझ में नहीं आ रही। सरकार की आलोचना भारत तक सीमित नहीं रही। ‘फाइनेंशियल टाइम्स’ ने उन छोटे उद्यमों की कहानियां छापीं जो बंद हो गए हैं। उसने सिंगापुर में रह रहे अर्थशास्त्री डॉ जहांगीर अजीज के कथन को उद्धृत किया, जिन्होंने कहा कि सरकार ने संक्रमण के प्रभाव को कम करके आंका, चाहे वह आर्थिक वृद्धि को चोट पहुंचने का हो, या इस बात का कि कितने समय तक उसका असर रहेगा। ‘द इकोनॉमिस्ट’ ने सख्त आलोचना भरे अपने संपादकीय में नोटबंदी से पैदा हुई मुश्किलों व बाधाओं को याद करते हुए कहा, ‘जीएसटी के अव्यवस्थित क्रियान्वयन से हालत और बुरी हो सकती है।’ निष्कर्ष भयावह था: ‘नीति में भाजपा की दिलचस्पी नहीं है। इसकी दिलचस्पी मतदाताओं का ध्यान बंटाने में है।’