चार सौ भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है
खतरे में लोकभाषाएं
पीपल्स लिग्विंस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया (पीएलएसआइ) का यह खुलासा बेहद चिंताजनक है कि देश में बोली जाने वाली आठ सैकड़ा भाषाओं में आधी भाषाएं आगामी पचास वर्ष बाद सुनाई नहीं देंगी। सर्वे में कहा गया है कि देश के आदिवासी समुदायों की भाषाएं तेजी से विलुप्त हो रही हैं और अगर इन्हें सहेजा नहीं गया तो देश की यह अमूल्य धरोहर खत्म हो जाएगी। सर्वे के मुताबिक देश में तकरीबन 780 भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से चार सौ भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच दशकों में ढाई सौ भाषाएं विलुप्त हुई हैं। याद होगा बीते वर्ष पहले ‘भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर’ द्वारा प्रकाशित अपने सर्वेक्षण में भी खुलासा किया गया था कि देश में बोली जाने वाली 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं और 130 से अधिक भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। इस शोध में कहा गया था कि अगर इन भाषाओं को सहेजा नहीं गया तो इनका अस्तित्व मिट जाएगा। इस शोध की मानें तो असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नगालैंड की 17 और त्रिपुरा की 10 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा हैं। इन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है। उदाहरण के तौर पर सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ चार रह गई है।
कमोबेश ऐसी ही स्थिति देश की अन्य आदिवासी लोकभाषाओं की भी है। चूंकि भारत भाषाई विविधता से समृद्ध देश है और यहां अनेक भाषाएं बोली जाती हैं, ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि इन लोकभाषाओं का संरक्षण किया जाए। अगर इन भाषाओं को संरक्षित नहीं किया गया तो देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाने वाली लोकभाषाएं ही विलुप्त नहीं होंगी बल्कि लोक संस्कृति के भी मिटने की आशंका बढ़ जाएगी। यह सच्चाई है कि जब भी कोई भाषा विलुप्त होती है तो उससे जुड़ी संस्कृति और सभ्यता के भी मिट जाने का खतरा उत्पन हो जाता है।
जिन भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है उनमें ज्यादातर आदिवासी समुदायों की भाषाएं हैं। उदाहरण के तौर पर, अरुणाचल में नब्बे से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से कई भाषाओं को बोलने वालों की तादाद उंगलियों पर रह गई है। ओड़िशा में सैंतालीस और महाराष्ट्र व गुजरात में पचास से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन इनमें से कई भाषाएं अब नाम भर की रह गई हैं। दरअसल, इसका मूल कारण यह है कि आदिवासी समुदायों के बच्चों को अपनी भाषा में शिक्षा नहीं मिलती है। यदि ये स्कूल जाते हैं तो इन्हें बाईस आधिकारिक भाषाओं में ही शिक्षा लेनी पड़ती है। उचित होगा कि इन बच्चों को लोकभाषाओं में भी शिक्षा की व्यवस्था हो। गौरतलब है कि लोकभाषाएं भारत में ही विलुप्त नहीं हो रही हैं बल्कि दुनिया के अन्य देशों में भी लोकभाषाओं का यही हाल है।
याद होगा, मैक्सिको की पुरानी भाषाओं में से एक अयापनेको के विलुप्त होने की खबर एक साल पहले खासी चर्चा में रही। सुन-जानकर आश्चर्य लगा कि अयापनेको भाषा को जानने-बोलने वालों की संख्या विश्व में महज दो रह गई है। दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह कि इन शेष दो व्यक्तियों ने भी ठान लिया है कि वे आपस में इस भाषा में वार्तालाप नहीं करेंगे। मतलब साफ है कि अयापनेको भाषा का अस्तित्व मिटने जा रहा है। विश्व की हर भाषा की अपनी ऐतिहासिकता और गरिमा होती है। प्रत्येक समाज अपनी भाषा पर गर्व करता है। अयापनेको भाषा का भी अपना एक विलक्षण इतिहास रहा है। इस भाषा को मैक्सिको पर स्पेनिश विजय का गवाह माना जाता है। लेकिन विडंबना है कि जिस अयापनेको भाषा को युद्ध, क्रांतियां, सूखा और बाढ़ लील नहीं पाए वह अब मृत्यु के कगार पर है। इन सबके बीच सुखद बात यह है कि इंडियाना विश्वविद्यालय के भाषाई नृविज्ञानी अयापनेको भाषा का शब्दकोश बना कर उसे विलुप्त होने से बचाने की जुगत कर रहे हैं। पर अयापनेको अपवाद नहीं है। तमाम देशों में बोली जाने वाली बहुत-सी स्थानीय भाषाएं दम तोड़ रही हैं।
एक अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में तकरीबन 6900 भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से ढाई हजार से अधिक भाषाओं के अस्तित्व पर आज संकट है। और इन्हें ‘भाषाओं की चिंताजनक स्थिति’ वाली सूची में रखने के लिए मजबूर होना पड़ा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा कराए गए एक तुलनात्मक अध्ययन से खुलासा हुआ है कि 2001 में विलुप्तप्राय भाषाओं की संख्या जो नौ सौ के आसपास थी वह बढ़ कर तीन गुने से पार जा पहुंच चुकी है। अगर आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो दुनिया भर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने-लिखने वाले लोगों की संख्या एक दर्जन से भी कम है। उक्रेन में बोली जाने वाली कैरेम भी इन्हीं में से एक है जिसे बोलने वालों की संख्या महज छह है। इसी तरह ओकलाहामा में विचिता भाषा बोलने वालों की संख्या दस और इंडोनेशिया में लेंगिलू बोलने वालों की संख्या सिर्फ चार रह गई है। विश्व में 178 भाषाएं ऐसी भी हैं जिन्हें बोलने वाले लोगों की संख्या डेढ़ सैकड़ा तक है।
भाषा वैज्ञानिकों की मानें तो इन भाषाओं को बचाने के लिए सार्थक कदम नहीं उठाए गए तो इनका मिटना तय है। ध्यान देना होगा कि जिन भाषाओं के अस्तित्व पर सबसे ज्यादा संकट मंडरा रहा है वे उन जनजातीय समूहों के बीच बोली जाती हैं जो आज की तारीख में कई तरह के संकट से गुजर रहे हैं। सबसे बड़ा संकट इनके जीवन की सुरक्षा को लेकर है। अमेरिका हो या भारत, हर जगह विकास के नाम पर जंगलों का उजाड़ा जा रहा है। अपनी सुरक्षा और रोजी-रोजगार के लिए जनजातीय समूहों के लोग अपने मूलस्थान से पलायन कर रहे हैं। दूसरे समूहों में जाने और रहने के कारण उनकी भाषा प्रभावित हो रही है। यही नहीं, उन्हें मजबूरन दूसरी भाषाओं को अपनाना पड़ रहा है। इसके अलावा रोजी-रोजगार का संकट, बाहरी हस्तक्षेप और धर्म परिवर्तन आदि भी कई ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से इनकी संस्कृति और भाषा समाप्त हो रही है।
यह सही है कि विश्व में अंग्रेजी भाषा का बढ़ता प्रभाव और उसका रोजगार से जुड़ा होना लोकभाषाओं के अस्तित्व के लिए बड़ी चुनौती है। अगर अंग्रेजी भाषा स्थानीय भाषाओं की विलुप्ति का कारण बन रही है तो इस बात पर विचार होना ही चाहिए कि क्यों न क्षेत्रीय भाषाओं को अंग्रेजी भाषा की तरह ही रोजगारपरक बनाया जाए। यह एक तथ्य है कि अंग्रेजी भाषा न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय भाषा का रूप धारण कर चुकी है बल्कि बड़े पैमाने पर रोजगार भी उपलब्ध करा रही है। इन परिस्थितियों के बीच स्थानीय भाषाएं दम तोडेंÞगी ही।
क्षेत्रीय भाषाओं के विलुप्त होने के और भी बहुतेरे कारण हो सकते हैं जिनकी पड़ताल होनी चाहिए। विलुप्त हो रही भाषाओं को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं है। स्वयंसेवी संगठनों व सामाजिक संस्थाओं को भी आगे आना होगा। ये भाषाएं तभी बचेंगी जब उन्हें संवैधानिक संरक्षण के साथ-साथ रोजगार से जोड़ा जाएगा। अगर इन भाषाओं को शब्दकोशों तक सीमित रखने का प्रयास हुआ तो फिर इन्हें इतिहास के गर्त में जाने से कोई बचा नहीं पाएगा। अच्छी बात यह है कि पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया दुनिया भर में बोली जाने वाली छह हजार से अधिक भाषाओं पर अध्ययन करने जा रहा है जिसकी रिपोर्ट 2025 में प्रकाशित होगी।