भारत में डॉक्टर और मरीज का औसत रिश्ता दो मिनट!

भारत में डॉक्टर-रोगी अनुपात पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। इससे हर मरीज को समुचित परामर्श का समय तय होगा और चिकित्सकों पर दबाव कम होगा। हाल के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में प्राथमिक उपचार से जुड़े चिकित्सक हर रोगी के साथ औसतन लगभग दो मिनट ही बिता पाते हैं। यह प्रथम श्रेणी के (यानी विकसित) देशों के विपरीत है, जहां परामर्श समय 20 मिनट से भी अधिक होता है। एक संक्षिप्त परामर्श अवधि न केवल रोगी की देखभाल को प्रभावित करती है, बल्कि सलाहकार चिकित्सक के कार्यभार और तनाव को भी बढ़ाती है।  इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का कहना है कि महज समय कम होने से नतीजा यह होता है कि उचित परामर्श के अभाव में दवाओं पर अधिक खर्च करना पड़ता है, एंटीबायोटिक दवाओं का अधिक इस्तेमाल किया जाता है और डॉक्टरों के साथ रिश्ते भी खराब होते हैं। जनता की सोच में अब काफी बदलाव आ चुका है। डॉक्टर-रोगी संबंध अब पहले जैसे नहीं रहे हैं। जहां मरीज सौ फीसद डॉक्टर के परामर्श पर निर्भर थे।

अब मरीज अपने इलाज के फैसले में डॉक्टरों के साथ बराबर साझीदार बनना चाहते हैं, जो एक गाइड के रूप में कार्य करता है और निर्णय लेने की सुविधा देता है। रोगी स्वायत्तता अब भी चिकित्सा नैतिकता के सिद्धांतों के मामले में सबसे आगे है। आइएमए के अध्यक्ष केके अग्रवाल ने कहा कि भारत में आज भी मरीजों और प्राथमिक देखभाल चिकित्सकों की संख्या के बीच एक भारी असमानता मौजूद है। नतीजतन, मरीजों को डॉक्टरों के साथ कम समय मिल पाता है। भीड़ से भरी ओपीडी का मतलब है कि चिकित्सक एक ही समय में दो या तीन मरीजों से एक साथ बात कर रहा होता है। इससे मरीज के इलाज और देखभाल में उसे समझौता करना पड़ता है। भारतीयों के मन में अभी भी धारणा बनी रहती है कि कौन अच्छा डॉक्टर है और कौन नहीं।

महासचिव डॉक्टर आरएन टंडन ने कहा कि लोग मानते हैं कि जो कम फीस लेता हो और हर समय उपलब्ध रहता हो ऐसे डॉक्टर बेहतर होते हैं। यह व्यावहारिक सोच नहीं है, लेकिन ऐसे चिकित्सक भी हैं जो अधिक रोगियों की आशा में कम फीस वसूलते हैं। इन सबसे परामर्श के लिए कम समय मिल पाता है,क्योंकि एक डॉक्टर हर वक्त तो काम नहीं कर सकता। डॉक्टरों का बुरी तरह से थक जाना एक बड़ी समस्या है जो उपरोक्त कारणों से बढ़ती जा रही है। यह चिकित्सक और रोगियों दोनों को ही प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है। ऐसे हालात से गुजर रहा एक डॉक्टर अपने रोगियों के प्रति सहानुभूति नहीं रख सकता और उसके फैसले भी एकदम सही नहीं हो सकते।डॉक्टर अग्रवाल ने कहा कि काम और घर दोनों स्थानों पर उनकी मांग होने के कारण महिला डॉक्टरों में थकान की संभावना अधिक रहती है।

विशेषज्ञों की संख्या सीमित है। इसलिए उन्हें अधिक घंटे काम करना पड़ता है। उनका काम मुश्किल होता जा रहा है। चिकित्सकीय भूलों का जोखिम भी बढ़ जाता है जिसमें सजा का भी प्रावधान है। ऐसे दंडनीय किस्म के काम के साथ, कुछ गलत भी हो सकता है या फिर बदलती कार्य संस्कृति में डॉक्टर निराशा से भी भर सकते हैं। भारत में डाक्टर-रोगी अनुपात को दुरुस्त करना समय की मांग है। उन्होंने डॉक्टरों के ऐसे तनावों के प्रबंधन का सुझाव भी दिया है। उन्होंने कहा कि डॉक्टर थकान से बचने के लिए निम्न उपाय कर सकते हैं, स्मार्ट कार्य करते हुए समय-निर्धारण करने का अभ्यास करें। कोई शौक भी रखें। इससे आप अधिक वर्कलोड से खुद को विचलित होने से रोक पाएंगे। परिवार और दोस्तों के लिए समय निकालें। दूसरों को कार्य सौंपे और प्रभावी ढंग से अपना समय प्रबंधन करने का प्रयास करें।

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