दुनिया मेरे आगे- तकनीक बिना जिंदगी
कुछ दिन पहले मुझे शिक्षकों के समूह के साथ एक कार्यशाला में भाग लेने का अवसर मिला। जिस तीन मंजिला भवन में हम लोग गए थे, वह एक पहाड़ी क्षेत्र में था। भवन तीन ओर पहाड़ियों और सामने एक झील से घिरा हुआ था। सभी लोग इसे लेकर उत्साहित थे क्योंकि बारिश के दिनों में पहाड़ी क्षेत्र में जाने के साथ पढ़ाने या पढ़ने के मामले में सीखने का अवसर भी मिल रहा था। बस में सफर के दौरान ही सभी लोग अलग-अलग समूहों में बंट कर योजना में व्यस्त हो गए। जैसे कि झील के किनारे फोटो खींचेंगे, पहाड़ी पर घूमने जाएंगे, सोशल मीडिया पर फोटो डालेंगे और अपने दोस्तों और परिवार के लोगों को वीडियो भेजेंगे वगैरह।
वहां चिह्नित भवन पहुंचते ही सभी लोग मोबाइल से फोटो खींचने में व्यस्त हो गए, क्योंकि बारिश के मौसम में पहाड़ सचमुच बहुत खूबसूरत लग रहा था और झील में खिले कमल अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। लेकिन थोड़ी देर बाद ही लोगों में सुगबुगाहट शुरू हो गई। सभी लोग एक-दूसरे से केवल एक प्रश्न पूछ रहे थे- ‘क्या आपके मोबाइल में नेटवर्क आ रहा है?’ थोड़ी देर बाद सभी लोगों को बताया गया कि इस स्थान पर मोबाइल में नेटवर्क नहीं आता है। यह सुनते ही सबके चेहरों पर गहरी चिंता छा गई और सभी एक-दूसरे से सवाल पूछने लगे कि ‘अरे! चार दिन तक बिना नेटवर्क के कैसे रहेंगे? घर पर कोई दुर्घटना हो गई तो सूचना कैसे मिलेगी? अगर जरूरी काम पड़ गया तो संपर्क कैसे करेंगे?’ इस तरह के कई और सवाल थे।
लेकिन थोड़ी देर बाद पता चला कि भवन की छत पर एक कोने में नेटवर्क आता है। फिर सभी लोगों ने भवन की छत पर जाकर अपने-अपने संबंधियों को सकुशल पहुंचने की सूचना दी और बताया कि यहां पर नेटवर्क नहीं आता है, इसलिए कम बात हो पाएगी। कार्यशाला खत्म होने के बाद अधिकतर लोगों ने अपनी राय देते हुए कहा- ‘अन्य कार्यशालाओं की अपेक्षा यहां उन्होंने ज्यादा सीखा, क्योंकि इस कार्यशाला में सभी ने रुचि के साथ भाग लिया। इसकी मुख्य वजह मोबाइल में नेटवर्क न आना रहा, जिसके चलते कार्यशाला के दौरान लोगों ने मोबाइल का उपयोग नहीं किया और पूरा समय एक-दूसरे से चर्चा करने में ही बिताया।’ ध्यान देने की बात यह है कि शुरू में सभी लोगों को बिना मोबाइल के रहना बहुत चुनौतीपूर्ण लग रहा था, लेकिन कार्यशाला के बाद सभी लोग खुश थे, क्योंकि उन्होंने बिना मोबाइल के जिंदगी को अनुभव करके देखा और पाया कि बिना मोबाइल के भी अच्छे से रहा जा सकता है।
दरअसल, वैश्वीकरण के दौर में हम अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए तकनीकी चीजों का उपयोग करते हैं। फिर धीरे-धीरे वे चीजें हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन जाती हैं और हमारे व्यवहार पर हावी होने लगती हैं। इसकी वजह से हमें लगता है कि हम बिना उस चीज के नहीं रह सकते। मसलन, घर पर टीवी देखना, मोबाइल पर खेल खेलना तथा सोशल मीडिया से जुड़े रहने के लिए इंटरनेट चलाना आदि। जबकि ऐसी ही आदतों के चलते पूरी दुनिया में लाखों लोग अवसाद का शिकार हो रहे हैं।मेरा अनुभव रहा है कि किसी कार्यशाला, सेमिनार या आयोजनों में हिस्सा लेने के दौरान भी अधिकतर लोगों का ध्यान मोबाइल पर रहता है। लोग बार-बार मोबाइल चेक करते हैं और फेसबुक, वाट्सऐप आदि पर संदेश भेजने में व्यस्त रहते हैं। कई बार बहुत महत्त्वपूर्ण चर्चा चल रही होती है और अचानक मोबाइल की घंटी बजती है। फिर सभी का ध्यान मोबाइल की घंटी ओर चला जाता है।
अनेक शोध बताते हैं कि तकनीकी चीजों का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा करने के कारण अवसाद का शिकार होने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसलिए विकसित देशों में लोग इससे बचने के लिए नए-नए विकल्प खोज रहे हैं। जैसे कुछ लोग समूह बना कर सुख-सुविधाओं से दूर एक ऐसी जगह रहने के लिए जाते हैं जहां केवल खान-पान और रहने की बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं। ऐसा करके वे मोबाइल, टीवी और इंटरनेट आदि से दूरी बना कर अपने आप को समय देने की कोशिश करते हैं, ताकि जिंदगी की भागदौड़ में कुछ समय अपने लिए निकाल सकें। लेकिन यह तभी संभव है जब हम अपने आराम के क्षेत्र से बाहर निकलें।मुझे लगता है कि हर चीज के दो पहलू होते हैं- अच्छा और बुरा। यह हमें ही तय करना होता है कि हम किस चीज का इस्तेमाल किस हद तक करना चाहते हैं। इस बात का जरूर खयाल रखा जाना चाहिए कि हम जिस चीज का इस्तेमाल कर रहे हैं, कहीं वह हमारे अपने व्यवहार पर हावी तो नहीं हो रही है? उससे हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर नकारात्मक प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है!