पुस्तक समीक्षाः शहर और साहित्य की रागदारी

लेकिन आठ-दस कदम चलने के बाद मुड़ा और पूरी शक्ति से दौड़ते हुए अंदर जाने के लिए छलांग मारी तो भड़ाक से दरवाजा खुलने की आवाज के साथ ही मैं बाहर खड़े दोनों कॉमरेड्स को लिए-दिए कमरे के भीतर जा गिरा’। उद्भ्रांत की किताब ‘शहर-दर-शहर उमड़ती है नदी’ में ‘केन-किनारे’ शीर्षक के तहत यह संस्मरण इस किताब और लेखक का निचोड़ है। इसमें उद्भ्रांत ने 1974 की अक्तूबर में आगरा में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन को याद किया है। केदार बाबू ने उद्भ्रांत के सम्मेलन में शामिल होने पर रोक लगा दी थी क्योंकि उन्होंने अपनी पत्रिका ‘युवा’ में धूमिल के उन पत्रों को छापा था जिसमें ऐसे आयोजनों पर तंज था। और अध्यक्ष केदार बाबू की ‘मनमानी’ के खिलाफ युवा कवि की इस छलांग का निंदा प्रस्ताव ‘स्वाधीनता’ और ‘उत्तरार्द्ध’ के अंकों में छपा। लघु पत्रिकाओं में भी यह खबर छपी।

यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स से प्रकाशित उद्भ्रांत के संस्करणों की इस किताब के शीर्षक में तो उमड़ती नदी है लेकिन इनके संस्मरण उफनते समुद्र की लहरों की भांति हैं। सागर तीरे बैठे आदमी के पास एक लहर कुछ छोड़ जाती है तो दूसरी लहर वापस ले जाती है। हर खांचे में अपनी छलांग लगा कर हर तरह के खांचे से बाहर उद्भ्रांत का यह संस्मरण हिंदी साहित्य, हिंदी पट्टी के साठ के दशक से लेकर मौजूदा समय तक पर एक डॉक्युमेंटरी फिल्म की तरह है। उनके वर्णन में एक सजीवता है। एक साहित्यकार ने अपने संस्मरण को क्यों और कैसे लिखा। इसका जवाब उद्भ्रांत देते हैं, ‘क्या स्मृतियों के असंख्य बिंबों को गड्डमड्ड कर दिया जाए-आधुनिक चित्रकला के एक कोलाज की तरह…तो सबसे बेहतर तरीका यही है कि बिना ज्यादा सोचे-विचारे, बिना कोई रूपरेखा बनाए, और बिना किसी तैयारी के, इस नदी में छलांग लगाई जाए और यह जिस दिशा में भी ले जाए, उस तरफ बहते चला जाए’। लेकिन यह संस्मरण न तो गड्डमड्ड है और न बस बहना।

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