संपादकीयः लूट का इलाज

हमारे देश में निजी अस्पतालों में मरीजों की लूट-खसोट, इलाज में कोताही और मनमानापन कोई नई बात नहीं है। गुरुग्राम के नामी अस्पताल फोर्टिस ने सात साल की एक डेंगू-पीड़ित बच्ची के इलाज का सोलह लाख रुपए का बिल उसके परिजनों को थमाया। दूसरी तरफ, इलाज कैसा हुआ? उस बच्ची की मौत हो गई! यह वाकया निजी अस्पतालों की कारस्तानी की मिसाल है। ऐसी जाने कितनी घटनाएं रोज-ब-रोज निजी अस्पतालों में दोहराई जाती हैं, लेकिन प्रभावशाली लोगों के संरक्षण की वजह से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। यहां तक कि अपने को स्वतंत्र कहने वाला मीडिया भी निजी अस्पतालों की अनियमितताओं और कमियों को दिखाने-बताने से परहेज ही करता है।

निजी अस्पतालों का स्वामित्व राजनीतिकों, पूंजीपतियों और अन्य ताकतवर लोगों के पास होने से उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत किसी सामान्य मरीज की कैसे हो सकती है! फोर्टिस अस्पताल के ताजा मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय ने जरूर संज्ञान लिया है और उसने सभी प्रदेशों और केंद्रशासित राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र भेज कर अस्पतालों पर कड़ी नजर रखने के निर्देश दिए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की ओर से जारी पत्र में कहा गया है कि चिकित्सीय संस्थाओं द्वारा की जाने वाली गड़बड़ियों से न केवल मरीज की स्थिति बल्कि स्वास्थ्य देखभाल और उपचार लागत में जवाबदेही को लेकर भी चिंताएं पैदा होती हैं। पत्र में क्लीनिकल संस्थापन (पंजीकरण और नियमन) अधिनियम, 2010 का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने को कहा गया है।

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