भाषा- सिकुड़ती मातृभाषाएं

पिछले दिनों केरल जाना हुआ। वहां की दुकानों पर लगे बोर्ड और होर्डिंग्स देख कर हैरानी हुई। अधिकतर दुकानों, दफ्तरों, जगहों के नाम दिल्ली की तरह ही अंगरेजी में लिखे थे। मलयालम में कभी-कभार ही कोई बोर्ड लगा दिखता था। हमें लेने आर्इं हमारी मित्र स्थानीय सरकारी कॉलेज में हिंदी पढ़ाती हैं। जब उनसे पूछा कि यहां सब जगह मलयालम की जगह अंगरेजी क्यों दिखाई दे रही है? तो उन्होंने बताया कि जब तक लोगों के पास पैसा नहीं आता, वे मलयालम माध्यम के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाते हैं, लेकिन जैसे ही पैसा आता है, सब अपने बच्चों को अंगरेजी पढ़ाना चाहते हैं। क्योंकि यहां अधिकतर लोग अपने बच्चों को विदेश भेजना चाहते हैं और विदेश जाने के लिए अंगरेजी आना जरूरी है।

शायद यही कारण है कि केरल सरकार ने अब सभी स्कूलों में दसवीं तक मलयालम पढ़ाना अनिवार्य कर दिया है। क्योंकि सरकार को शिकायतें मिल रही थीं कि केरल के कई स्कूलों में मलयालम पढ़ाई ही नहीं जाती और मलयालम बोलने पर भी पाबंदी है। हिंदी क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें अकसर आती रहती हैं।
केरल में मध्यवर्ग के लोग जहां भारत के अन्य शहरों में जाकर शिक्षा प्राप्त करते हैं, ताकि विदेश जा सकें, वहीं गरीब लोग भी जल्दी से जल्दी विदेश जाना चाहते हैं, क्योंकि विदेश में अगर मजदूरी भी करें, तो भारत से ज्यादा अच्छे पैसे मिलते हैं। इसलिए वे मौका मिलते ही अंगरेजी सीखना चाहते हैं। यही कारण है कि इन दिनों बंगाल और असम से बड़ी संख्या में यहां लोग काम करने आते हैं, क्योंकि अब यहां स्थानीय मजदूर और छोटे-मोटे काम करने वाले मुश्किल से मिलते हैं। यह सूचना भी दिलचस्प है कि चूंकि बंगाल और असम के लोगों को मलयालम नहीं आती, तो वे हिंदी बोलते हैं।  तिरुअनंतपुरम में कॉलेज, यूनिवर्सिटी, दफ्तरों से लेकर दुकानों तक में सब आपस में मलयालम में बातें करते हैं। हिंदीभाषी प्रदेशों की तरह नहीं है कि जैसे ही यहां कोई बड़े पद पर पहुंचता है, वह हिंदी की जगह अंगरेजी बोलना पसंद करता है!

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