चर्चा- भारतीय साहित्य विश्व साहित्य क्यों नहीं

यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि हिंदी या फिर भारतीय साहित्य में ऐसे रचनाकार क्यों नहीं पैदा हो पाते, जिन्हें विश्व साहित्य में मान-सम्मान हासिल हो पाता हो। उन्हें विश्व साहित्य के रचनाकारों के बरक्स रख कर देखा जाता हो। फिर यह भी कि हमारे रचनाकार बार-बार पश्चिम की तरफ देखने पर क्यों मजबूर होते हैं। क्या वहीं सब कुछ श्रेष्ठ लिखा जा रहा है? खासकर हिंदी आलोचना में यह प्रवृत्ति घर कर गई लगती है कि बिना किसी पश्चिमी विद्वान की बात का उद्धरण दिए, वह अपनी बात पूरी कर ही नहीं पाती। इसके पीछे क्या वजहें रही हैं, इस बार की चर्चा इसी पर। – संपादक

भारतीय जन का मूल मनोविज्ञान है उसका अतीत प्रेम। अतीत अनुकूल न हो, खराब हो, तब भी वह हमें पसंद है, हमें मधुर लगता है। यही कारण है कि हमारा साहित्यकार भी अतीत के ही तहखाने में विचरता रहता है। माना कि वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक काव्य, नाटक हमारे पूर्वजों की प्रखर बौद्धिकता के प्रमाण हैं, मगर उनसे चिपक कर हजारों साल के प्राचीन काल में जीते रहने से क्या वर्तमान के प्रति हम उदास बने रह कर ऐसा साहित्य रचना छोड़ दें, जो भारत को नई पहचान दे, नया संभावनाशील भविष्य दे? आज हम जिस समय में हैं, वह साहित्यकार के सृजन की कठिन चुनौती का समय है। भले तकनीकी विकास से आधुनिकता के नए-नए गलियारे बना भी रहे हों, लेकिन तकनीकी में शब्द मर रहा है, भाषा मूर्छित है और सृजन की श्रेष्ठता शून्य में भटक रही है। जो लिख रहे हैं, वे पढ़ते नहीं और जो पढ़ रहे हैं, वे लिखते नहीं। पढ़ने और लिखने की जिस आधुनिकता को अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कमलेश से लेकर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपनाया था, वे अतीत से समृद्ध थे, वर्तमान से संवेदित थे और भविष्य की संभावना से युक्त थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *