पाबंदी के बावजूद

दुनिया भर में अलग-अलग कारणों से फिल्मों और किताबों को उनकी आखिरी मंजिल, जनता के पास जाने से रोका जाता रहा है। प्रतिबंधित फिल्मों और किताबों की सूची बहुत लंबी है। कोई सरकार किसी फिल्म या किताब पर क्यों प्रतिबंध लगाती है, इसका कोई तयशुदा जवाब उपलब्ध नहीं है। हर दौर की सरकार को अचानक से महसूस होता है कि फलां फिल्म या फलां किताब समाज के ताने-बाने को बिगाड़ सकती है या किसी वर्ग विशेष की भावना आहत हो सकती है तो उसे दरी के नीचे सरका दिया जाता है या सरकारी दराज में डाल दिया जाता है। ये फैसले जनहित के नाम पर लिए जाते हैं।
भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी का मामला दिलचस्प है। 1988 में उनका उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेज’ पूरी दुनिया में चर्चित होने से पहले ही भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसके बाद ईरान के अयातुल्लाह खोमेनी ने रुश्दी के खिलाफ फतवा दिया था। पच्चीस बरस तक रुश्दी ब्रिटेन की सरकार के संरक्षण में रहे। प्रतीकात्मक शैली में लिखे इस उपन्यास ने रुश्दी को अंतरराष्ट्रीय लेखक बना दिया। कहने को द सेटेनिक वर्सेज आज भी प्रतिबंधित है पर इंटरनेट पर सुगमता से उपलब्ध है और कोई भी उसे डाउनलोड कर पढ़ सकता है।

दुनिया को लोकतंत्र की वास्तविक तस्वीर बताने वाले अमेरिका में भी फिल्में प्रतिबंधित होती रही हैं। हालांकि बोलने-लिखने की आजादी के मामले में वह देश मिसाल है। वहां फिल्में या किताबें सरकारी नजरिये से प्रतिबंधित नहीं होतीं बल्कि मानवीय कारणों से होती रही हैं। जादू टोना, रंगभेद, किसी पंथ या वाद को बढ़ावा देना रोक लगाने के महत्त्वपूर्ण कारण बनते रहे हैं।

प्रतिबंधों को लेकर सभी सरकारें एक जैसा व्यवहार करती रही हैं चाहे फिर वे मध्यमार्गी हों, या दक्षिणपंथी या वामपंथी। भारत में फिल्मों को ‘सेंसर’ करने की शुरुआत ब्रिटिश काल में ही हो गई थी। गुलाम देश बगावत की चिंगारी को मशाल न बना ले इस लिहाज से गीतों और संवादों को काट दिया जाता था। अंग्रेजों को सिर्फ अपने साम्राज्यवादी मंसूबों की चिंता थी। चुंबन से उन्हें कोई परहेज नहीं था। 1936 में देविका रानी अशोक कुमार अभिनीत ‘अछूत कन्या’ न सिर्फ अपने गीतों बल्कि दलित-सवर्ण प्रेम और देविका रानी अशोक कुमार के ‘लिप लॉक किस’ के लिए आज भी याद की जाती हैं। इक्कीसवीं सदी में हम आज इतनी उदारता की उम्मीद न जनता से कर सकते हैं न सेंसर बोर्ड से।

नेहरू युग से लेकर मुख्यमंत्री मोदी और फिर प्रधान सेवक मोदी के कार्यकाल तक में दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जब किताबों और फिल्मों को रोका गया। फिल्मों के प्रतिबंधों को लेकर मजेदार तथ्य यह है कि वे हमेशा प्रतिबंधित नहीं रहतीं। दर्शक उन्हें ढूंढ़ कर देख ही लेते हैं। शेखर कपूर की ‘बेंडिट क्वीन’, दीपा मेहता की शबाना आजमी नंदिता दास अभिनीत ‘फायर’, मीरा नायर की ‘कामसूत्र’, अनुराग कश्यप की ‘पांच’ और ‘ब्लैक फ्राइडे’, गुजरात दंगों पर आधारित राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता सारिका की ‘परजानिया’, नंदिता दास की ‘फिराक’, दीपा मेहता की ‘वाटर’ ऐसी कुछ फिल्में हैं जिनके बारे में दलील दी गई थी कि इनके प्रदर्शित होते ही आसमान टूट पड़ेगा।

जाहिर तौर पर कुछ भी नहीं हुआ। कुछ प्रमुख किताबें भी सिर्फ इस वजह से रोक दी गर्इं कि उनके प्रकाशित होते ही ‘कुछ विशेष’ लोगों की भावनाएं आहत हो जाएंगी। धीरूभाई अंबानी पर लिखी ‘द पलिएस्टर प्रिंस’, गांधीजी की हत्या पर काल्पनिक कहानी ‘नाइन आॅवर टू रामा’, शिवाजी पर लिखी ‘हिंदू किंग इन मुस्लिम इंडिया’ और भाजपा के जसवंत सिंह द्वारा लिखित ‘जिन्ना’ आदि-इत्यादि। फिल्में, किताबें समय के प्रवाह के साथ आती रहेंगी और समय-समय पर प्रतिबंधित होकर लोकप्रिय भी होती रहेंगी। इससे हमें समझ लेना चाहिए कि ‘पद्मावती’ के साथ जो हो रहा है वह आखिरी मामला नहीं है।

’रजनीश जैन, शुजालपुर सिटी, मध्यप्रदेश

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