कांग्रेस ने फिर बिछाई जातीय समीकरण की बिसात

अजय पांडेय

गुजरात विधानसभा के चुनाव पर समूचे देश की नजरें लगी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के इस गृह प्रदेश में सियासी घमासान अब चरम पर है। चुनावी जलसों से फिजां में सियासत के चटख रंग बिखरे हैं। गुजरात गौरव और गुजरात अस्मिता की भावुक अपील के साथ खुद मोदी ने चुनाव प्रचार का मोर्चा संभाल लिया है तो दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष बनने जा रहे पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सियासी रैलियों में खूब भीड़ उमड़ रही है। सटोरियों से लेकर सर्वे करने वाली एजंसियां तक भाजपा के पक्ष में झंडा जरूर बुलंद कर रही हैं लेकिन इन तमाम दावों के बावजूद एक सवाल चहुंओर पूछा जा रहा है कि आखिर गुजरात का चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा। दो दशक से अधिक समय से सूबे में हुकूमत चला रही भाजपा की जीत को लेकर दावे चाहे जितने किए जा रहे हों लेकिन पार्टी के आला नेताओं के चेहरों की बेचैनी बता रही है कि कहीं तो कुछ ऐसा है जो सत्तारूढ़ दल के चुनावी गणित को पलीता लगा रहा है। उन्हें जीत के प्रति आश्वस्त होने नहीं दे रहा। गुजरात में ऐसा क्या हो रहा है, जिसने भाजपाई दिग्गजों को बेचैन कर रखा है?

गुजरात के सियासी परिदृश्य को जानने के लिए अतीत के कुछ पन्ने पलटने होंगे। नब्बे के दशक में सूबे के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने प्रदेश में एक खास राजनीतिक प्रयोग किया। पाटीदार समाज के प्रभुत्व वाली गुजरात की राजनीति में उन्होंने ‘खाम थ्योरी’ पेश कर राज्य की 182 में 149 सीटें जीत कर फिर से कांग्रेस की हुकूमत कायम कर दी थी। क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलिम समाज के लोगों को जोड़कर बनाई गई इस खाम थ्योरी ने गुजरात की सियासत की दिशा बदल दी। इस बार के चुनाव में कांग्रेस ने इसी सियासी सिद्धांत को थोड़ी-बहुत तब्दीली के साथ पेश कर दिया है।

बदलाव यह है कि माधव सिंह सोलंकी के जमाने में पाटीदार समाज कांग्रेस के बिल्कुल खिलाफ होकर भाजपा के खेमे में चला गया लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी गोटियां बड़ी सावधानी से बिछाई हैं और उसकी कोशिश है कि भाजपा का सबसे मजबूत समर्थक माने जाने वाले पाटीदार समाज में बंटवारा हो जाए।
गुजरात में मुख्यमंत्री बनकर मोदी के जाने के बाद और प्रधानमंत्री बनकर वहां से लौटकर दिल्ली आने के दरम्यान बहुत कुछ बदला है। नर्मदा में बहुत पानी बह चुका है। मतलब यह कि नौजवान अल्पेश ठाकोर की अगुआई में सूबे में शराब और बेरोजगारी के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन हुआ। समूचे प्रदेश में इस आदोलन को जोरदार समर्थन मिला। दूसरी ओर पाटीदार समाज को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के मुद्दे पर युवा नेता हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आंदोलन छिड़ा और भाजपा की हुकूमत ने इस आंदोलन को दबाने की भरसक कोशिश की।

एक तीसरा मोर्चा गोरक्षकों ने खोल दिया। दलितों की पिटाई की ऊना में हुई घटना ने युवा वकील जिग्नेश मेवाणी को वकालत छोड़कर अपने समाज की अगुवाआई करने को प्रेरित कर दिया। चुनाव के इस मैदान में इस बार जिग्नेश भी हैं। अल्पेश ठाकोर अपने एक लाख समर्थकों के साथ राहुल गांधी की सभा में कांग्रेस में शामिल हो गए तो आरक्षण के कांग्रेसी फॉर्मूले को स्वीकार करते हुए हार्दिक ने भी कांग्रेस को समर्थन देने का एलान कर दिया। जिग्नेश मेवाणी स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में हैं लेकिन उनके समर्थन में कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार हटा लिया है। अंदरखाने यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने अल्पेश, हार्दिक व जिग्नेश के समर्थकों को थोक में टिकट दिए हैं।

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