शिक्षा की साख

अकादमिक शिक्षा देश की शिक्षा-व्यवस्था का आधार होती है। आने वाली पीढ़ियां कैसे सोचेंगी, इसका निर्धारण इसे ही करना होता है। मगर विडंबना है कि सरकारें इस ओर से लगातार मुंह मोड़ने का काम कर रही हैं। कई भारी विसंगतियां हैं, जिन्हें अविलंब दूर किए जाने की जरूरत है, नहीं तो हमारा समाज बौद्धिक अराजकता की ओर कदम बढ़ा ही रहा है। पहली बात कि दसवीं-बारहवीं के बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित शिक्षक (बीएड / एमएड) की अनिवार्यता होती है। मगर स्नातक और परास्नातक जैसी ऊंची कक्षाओं में पढ़ाने वाले लोगों को भी ऐसा प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, जिससे वे अपने शिक्षण कौशल का विकास कर सकें और उसे सिद्ध कर सकें। आज अकादमिक जगत में ऐसे तमाम प्राध्यापक मौजूद हैं, जिनके व्याख्यान किसी विद्यार्थी के पल्ले नहीं पड़ते।

दूसरी महत्त्वपूर्ण समस्या है शोध गुणवत्ता को ठीक करने के नाम पर प्रति प्राध्यापक विद्यार्थियों की संख्या तय कर देना और इसी आधार पर शोध सीटों में कटौती करना। ऐसी व्यवस्था में किसके साथ काम किया जाए, बहुत हद तक इस चयन का अधिकार शोधार्थियों के पास नहीं रह जाता। शोधार्थियों को उनकी शोध रुचि के अनुरूप शोध निदेशक नहीं मिलने से अच्छे काम की उम्मीद करना बेकार है। तीसरी समस्या है यूजीसी द्वारा थोपे गए शत-प्रतिशत वायवा यानी मौखिक परीक्षा की व्यवस्था की। इसमें शोध दाखिले में लिखित परीक्षा को क्वालिफाइंग करके साक्षात्कार को ही चयन का आधार बना दिया जा रहा है। साक्षात्कार लेने वाला भी इंसान ही होता है, जिसमें जाति-धर्म और क्षेत्रवाद की तमाम भावनाएं मौजूद हो सकती हैं। ऐसे में स्वतंत्र और निष्पक्ष काम एक मजाक बन कर रह जाता है।

एक ओर सरकारी नौकरियों से इंटरव्यू हटाया जा रहा है और दूसरी ओर अकादमिक जगत को सरकार इसी पक्षपातपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर रही है। इस व्यवस्था में योग्यता बुरी तरह से हतोत्साहित हो रही है और चापलूसी को बढ़ावा मिल रहा है। जी-हुजूरी बजा कर नामांकन और नौकरी पाने वालों से विद्वता की आशा कैसे की जा सकती है! चौथी समस्या है एमफिल / पीएचडी की प्रवेश परीक्षा को वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के द्वारा कराना। इस व्यवस्था में भावी शोधार्थियों के विचार-विश्लेषण क्षमता का कुछ पता नहीं चलता। ऐसी परीक्षाओं में रट्टू तोता बन कर भी सफल हुआ जा सकता है। सरकार अविलंब ध्यान दे, विश्व के सबसे अधिक युवा देश के आगे यह बहुत बड़ी समस्या है।

’अंकित दूबे, जेएनयू, नई दिल्ली

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