जर्मनी में भी चल रहा है स्वच्छ हवा के लिए संघर्ष

साफ हवा का मुद्दा दिल्ली और भारत के दूसरे शहरों को अभी भले ही खास तौर पर स्मॉग के कारण परेशान कर रहा हो, ये समस्या कुछ अलग तरह से जर्मनी की भी है। जर्मनी के कई शहरों में हवा में जहरीली गैसों की मात्रा कानूनी तौर पर तय सीमा को पार कर गयी है और वहां डीजल से चलने वाली गाड़ियों पर प्रतिबंध लगाये जाने का खतरा पैदा हो गया है। आंकड़े भयावह हैं। यूरोप के 30 देशों में हुए एक शोध के अनुसार डीजल गाड़ियों से निकलने वाली जहरीली गैस के कारण हर साल यूरोप में करीब 10,000 जानें जाती हैं। एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार प्रदूषण से होने वाली कुल 90 लाख मौतों में 25 लाख भारत में होती हैं। अमेरिका में जर्मनी कार कंपनी फोल्क्सवागेन की डीजल मोटर में उत्सर्जन संबंधी धोखाधड़ी पकड़े जाने के बाद से डीजल गाड़ियों और स्वास्थ्य का मामाला बहस के केंद्र में आ गया है। हाल में जर्मन प्रांत नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया में सरकार द्वारा करायी गयी एक जांच के अनुसार 127 में से 60 टेस्ट प्वाइंट पर यूरोपीय संघ द्वारा तय सल्फर डायऑक्साइड की 40 माइक्रोग्राम की सीमा का पालन नहीं हो रहा है। इसकी मुख्य वजह गाड़ियां हैं, जिसमें डीजल की गाड़ियां करीब 80 प्रतिशत है। ज्यादातर घटनाएं वहां रजिस्टर की गयी हैं जहां यातायात अत्यंत सघन है।

डर ये है कि सरकारें और शहर का प्रशासन जिस बात को नजरअंदाज करता रहा है, उस पर अब अदालतें फैसला लेना शुरू कर सकती हैं। कुछ महीने पहले मर्सिडीज और पोर्शे जैसी कारों के लिए मशहूर शहर श्टुटगार्ट में स्थित प्रांतीय अदालत ने पर्यावरण संगठन की अपील पर फैसला सुनाया था कि लोगों के जीवन और स्वास्थ्य की रक्षा, संपत्ति की रक्षा या कुछ करने की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस मामले में डीजल गाड़ी रखने या गाड़ी चलाने की स्वतंत्रता से। अब लोगों या संगठनों की शिकायत पर किसी भी शहर के केंद्र में हवा को स्वच्छ रखने के लिए डीजल गाड़ियों पर रोक लगायी जा सकती है। राजनीतिज्ञ मतदाताओं की प्रतिक्रिया से डरते हैं, न्यायाधीशों को ऐसा डर नहीं होता।
इस फैसले के बाद कारों के शहर में डीजल कारों पर रोक का खतरा मंडरा रहा है। जर्मन उमवेल्टहिल्फे नामक पर्यावरण संगठन ने बाडेन वुर्टेमबर्ग प्रांत में अपने मुकदमे में दलील दी थी कि सड़कों के किनारे स्थित टेस्ट स्पॉट पर सल्फर डायऑक्साइड की मात्रा तय सीमा से 100 प्रतिशत से ज्यादा है। डीजल गाड़ियों पर रोक लगाकर ही इसे कम किया जा सकता है। जजों ने डीजल गाड़ियों पर फौरन रोक तो नहीं लगायी लेकिन ये जरूर माना कि हवा में जहरीली गैसों की मात्रा कम करने के लिए डीजल गाड़ियों पर प्रतिबंध लगाना प्रभावी जरिया है। अदालत ने फौरी कदमों की मांग की।

स्थानीय राजनीतिज्ञों की चिंता ये है कि अदालतें यदि डीजल गाड़ियों पर प्रतिबंध लगा देती है तो शहर का कामकाज ठप हो सकता है। डीजल गाड़ियां खर्च के मामले में किफायती होती हैं, इसलिए जर्मनी में न सिर्फ नगर परिवहन की बसें डीजल से चलने वाली हैं, बल्कि सामानों का परिवहन करने वाले ट्रांसपोर्टर भी। शहर को चलाते रहने वाले कारीगर भी डीजल गाडियों का इस्तेमाल करते हैं। और अगर इनका शहर के अंदर आना रुक जाए तो शहर ठहर जायेंगे, सफाई नहीं होगी, मरम्मत नहीं होगी, जरूरत का सामान नहीं आ पायेगा और बाजार को चलाने वाले लोग नहीं आ पायेंगे। खतरे में पड़े शहरों के मेयरों की यही उम्मीद है कि जज सोच समझ कर फैसला लेंगे। लेकिन अदालतें किस करवट बैठेंगी, कोई नहीं जानता। इसलिए कोई अदालतों पर भरोसा कर नहीं कर रहा है। मुकदमों में ये तो बताना ही होगा कि शहरी प्रशासन हवा की स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए कितना गंभीर है। उसने कोई कदम उठाए हैं या नहीं? मसलन डीजल बसों के बदले इलेक्ट्रिक बस, ट्रांसपोर्ट के लिए इलेक्ट्रिक गाड़ियां, शहरों में साइकिल को प्रोत्साहन। लेकिन इस सबके लिए अतिरिक्त धन की जरूरत होगी जो स्थानीय निकायों के पास हैं नहीं। उन्हें पर्यावरण सम्मत परिवहन पर निवेश करने के लिए केंद्र सरकार की मदद की जरूरत होगी।

इस हफ्ते राज्यों के मुख्यमंत्रियों, शहरों के मेयरों और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि संगठनों की स्वच्छ हवा की समस्या को काबू में लाने के उपायों पर बैठक हुई। फौरी मदद के रूप में केंद्र सरकार ने 1 अरब यूरो देने का फैसला किया है, जिसमें आधी भागीदारी कार उद्योग की होगी। लेकिन ये धनराशि काफी नहीं है। एक इलेक्ट्रिक बस की कीमत 700,000 यूरो है और साइकिल का रास्ता बनाने पर प्रति किलोमीटर 200,000 यूरो का खर्च आता है। इस हिसाब से देखें तो एक अरब यूरो में सिर्फ 1500 इलेक्ट्रिक बसें आयेंगी या 5000 किलोमीटर साइकिल का रास्ता बनेगा। पर्यावरणवादियों की शिकायत है कि सालों से डीजल गाड़ियों में हेरफेर कर अरबों कमा रही कार कंपनियां उससे होने वाले नुकसान को दूर करने में पर्याप्त हिस्सा नहीं ले रही है। दूसरी ओर शहरों में आनेवाली गाड़ियों पर फीस लगाकर भी सिटी सेंटर में हवा को बेहतर बनाया जा सकता है। लंदन 15 साल से ऐसा कर रहा है। लेकिन जर्मनी में ऑटो लॉबी के दबाव में इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव दिखता है।

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