राजस्थान में बीजेपी को है चुनाव की चिंता तो बिहार में इतिहास पुरुष बनने की होड़ में नीतीश कुमार

अनिल वंशल

चार साल चुकता होते ही सताने लगी अगले चुनाव की चिंता। राजस्थान में भाजपा सरकार ने चार साल पूरे होने पर इस बार जश्न तो जरूर मनाया, लेकिन अगले चुनाव की चिंता की छाया लगातार पीछा करती दिखी। जश्न सरकार ने ही नहीं पार्टी ने भी मनाया। चिंता सूबे के सियासी मिजाज ने ज्यादा बढ़ा रखी है। जैसे नियम सा बन गया हो कि एक बार भाजपा सत्ता में आती है तो अगली बार स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस। इस बार बारी कांग्रेस की है। यह बात अलग है कि मोदी का मैजिक परंपरा को बदल डाले। लेकिन अड़चन कार्यकर्ताओं के मूड से नजर आ रही है। जो कभी अहसास ही नहीं कर पाए कि सूबे में उनकी अपनी ही सरकार है। कार्यकर्ता ही क्यों शिकवा तो विधायक और मंत्री तक भी शुरू से ही कर रहे हैं कि सरकार पर नौकरशाही हावी है। उनकी कोई कद्र नहीं। संघी अतीत वाले कार्यकर्ता ज्यादा खफा हैं। चार साल की उपलब्धियां मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को बेशक अनेक लग रही हों पर कार्यकर्ताओं के गले कतई नहीं उतर रहीं। सो अब सरकार के प्रबंधकों की कोशिश नाराज कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित कर उन्हें मनाने की है। सरकार के कामकाज से लोगों के संतुष्ट नहीं होने का अंदाजा पार्टी आलाकमान को भी है ही। खुद अमित शाह संकेत दे चुके हैं कि गुजरात से निपटते ही उनका अगला लक्ष्य राजस्थान होगा। पार्टी और सरकार का भेद भी इस सूबे में वसुंधरा के वर्चस्व ने मिटा दिया था। नतीजतन अपनी अनदेखी से चिढ़े संघ ने यहां महामंत्री संगठन के पद के लिए कोई प्रचारक भेजा ही नहीं। बमुश्किल पिछले दिनों चंद्रशेखर को महामंत्री संगठन बनाया तब जाकर संघी खेमा कुछ संतुष्ट नजर आया।

नया अवतार

नीतीश कुमार अब इतिहास पुरुष बनने की होड़ में हैं। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद और महात्मा गांधी का नया अवतार। तभी तो सरकार के विकास के एजंडे के इतर उन्होंने समाज सुधार का बीड़ा उठाया है। लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे बाल विवाह और दहेज प्रथा को खत्म करने की पहल करें। केवल सरकार के प्रयास सामाजिक कुरीतियों को खत्म नहीं कर सकते। लोग आगे आएंगे तभी हो सकता है सुधार। वैसे इस एजंडे का विरोध तो उनके विरोधी भी नहीं कर सकते। पर उनका यह सवाल भी तो वाजिब है कि राज्य का प्रशासन और पुलिस इन बुराइयों से निपटने के लिए क्या कर रहे हैं। क्या कानून पर्याप्त नहीं है या फिर पुलिस प्रशासन विफल है। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि नीतीश बाल विवाह और दहेज प्रथा रोकने के लिए तो सरोकार जता रहे हैं पर वे इन बुराइयों के पीछे की वजहों को क्यों नहीं तलाशते। विरोधी यही रट लगा रहे हैं कि अगर शराबबंदी को पुलिस के बल पर लागू कराया जा सकता है तो सामाजिक बुराइयों क्यों नहीं रोक सकती पुलिस। अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से तो नीतीश ने नहीं कहा कि कुप्रथा रोकने में मदद करें। पर जो नीतीश के मिजाज को पहचानते हैं, वे कतई विचलित नहीं। उन्हें तो पता है नीतीश दूसरों की लकीर मिटाते नहीं। वे अपनी और बड़ी अलग लकीर खींंचने की फिराक में रहते हैं। अगर ठान लेंगे तो इन बुराइयों को रोक भी सकते हैं। लेकिन सियासत में जोखिम कौन मोल ले। वोट की राजनीति और लोकप्रियता का मोह जो आड़े आ जाता है।

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