गुजरात का समर जीतने के लिए मोदी को बहाना पड़ा पसीना
आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात विधानसभा चुनाव में जीत हासिल कर ही ली। भाजपा के लगातार 22 साल (बीच में भाजपा बागी शंकर सिंह वाघेला आदि का शासन मिलाकर) के शासन के बाद गुजरात को जीतना किसी युद्ध से कम नहीं माना जा रहा था। चुनाव जीतने के लिए मोदी ने हर तरकीब अपनाई। प्रतिद्वंदी कांग्रेस को घेरने के लिए सांप्रदायिक मुद्दे उठाए। कांग्रेस चुनाव में अल्पसंख्यकों के वोट सुनिश्चित मान कर भाजपा को दूसरे पिच पर खेलने के लिए मजबूर करती रही लेकिन कांग्रेस की कुछ गलतियों का फायदा उठाने में प्रधानमंत्री ने देरी नहीं की। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दावों के मुताबिक भाजपा को 150 सीटें नहीं मिली लेकिन विपरीत माहौल में भाजपा बहुमत से चुनाव जीत गई।
भाजपा नरेंद्र मोदी के प्रदेश में सक्रिय रहे बिना सालों बाद चुनाव लड़ रही थी। भाजपा की सबसे ज्यादा पकड़ व्यापारियों में थी जो नोटबंदी और जीएसटी से नाराज थे। भाजपा के पक्ष में सबसे बड़ी बात थी कि कांग्रेस के पास कोई कद्दावर स्थानीय नेता नहीं था लेकिन कांग्रेस ने बेहतर रणनीति बनाते हुई पाटीदार समाज के नेता हार्दिक पटेल, पिछड़ों के नेता अल्पेश ठाकोर और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को अपने पक्ष में कर लिया था। हालात ऐसे बन गए थे कि लगता था कि नरेंद्र मोदी के विजय रथ को उनके गृह राज्य में ही कांग्रेस रोक लेगी और प्रधानमंत्री के कांग्रेस मुक्त भारत की गुजरात में हवा निकल जाएगी। प्रधानमंत्री ने सबसे पहला काम किया कि चुनाव से पहले करीब दस दौरे करके कई विकास योजनाओं को शुरू करवाया। फिर जीएसटी की दर में बदलाव करवाए और उनकी पार्टी के नेता बार-बार बयान देते रहे कि जरूरत के हिसाब से जीएसटी में और बदलाव किए जाएंगे। उसके बाद प्रधानमंत्री ने चुनाव की कमान अपने हाथ में ले ली। पाटीदारों की नाराजगी दूर करने के लिए 182 में से 52 टिकट पाटीदारों को दिए। कई पाटीदार नेताओं को भाजपा में शामिल करवाया।
प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में 24 सभाएं की जबकि गुजरात में 39 सभाएं की। चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी गुजरात की सभाओं में भी हिंदी में ही भाषण करते थे लेकिन चुनाव में उन्होंने पूरे गुजरात में केवल गुजराती में भाषण किया। कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के प्रधानमंत्री को नीच कहे जाने वाले बयान पर पार्टी ने उनके खिलाफ कारवाई की, उन्होंने माफी भी मांगी लेकिन मोदी उसे अंतिम चुनावी सभा तक उसे दोहराते रहे। यही हाल कांग्रेस नेता और बाबरी मस्जिद का पक्षकार के वकील कपिल सिब्बल के राम जन्मभूमि विवाद की सुनवाई 2019 के लोक सभा चुनाव के बाद करने की सुप्रीम कोर्ट में की गई अपील की भी रहा। उसे भी प्रधान मंत्री ने मुद्दा बनाया। जबरन पाकिस्तान को गुजरात चुनाव में लाकर नया मुद्दा बनाने का कोशिश की। कांग्रेस ने बड़ी होशियारी से चुनाव को सांप्रदायिक न बनने देने की कोशिश के तहत कांग्रेस की एक बड़ी सभा मुसलमान नेताओं से नहीं संबोधित किया। भाजपा ने जबरन अहमद पटेल को कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर चुनाव को सांप्रदायिक बनने का असफल कोशिश की। इसके अलावा तरह-तरह के मुद्दे भाजपा उठाकर चुनाव प्रचार की दिशा बदलने की कोशिश की। रही सही कसर प्रधानमंत्री ने चुनाव में भावनात्मक कार्ड खेलकर पूरा किया। उन्होंने चुनाव को गुजरात की अस्मिता से जोड़कर उसके ही दांव पर लग जाने का दावा किया। बावजूद इसके नौ दिसंबर के पहले चरण के चुनाव तक कांग्रेस मजबूत दिख रही थी। कांग्रेस के नेताओं से मिले मुद्दों के बाद 14 दिसंबर के दूसरे चरण में बाजी भाजपा ने पलट दी।
गुजरात में करीब 22 साल से भाजपा शासन में रही है। भाजपा के पटेलों में सबसे असरदार नाम केशुभाई पटेल की अगुवाई में 1995 में भाजपा की पहली सरकार बनी लेकिन शंकर सिंह वाघेला की बगावत से उनकी सरकार साल भर ही चल पाई। वैसे वे दोबारा 1998 में मुख्यमंत्री बने लेकिन गुजरात में भाजपा मजबूत हुई नरेंद्र मोदी के 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद। भाजपा का मोदी को मुख्यमंत्री बनाने के प्रयोग सफल रहा। वे 2014 में देश के प्रधानमंत्री बनने तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने इस मिथक को भी तोड़ा कि गुजरात में पटेलों के अलावा किसी बिरादरी की नेता ठाक से राज कर ही नहीं सकता। गुजरात दंगों ने मोदी की छवि खराब की लेकिन उनके शासन के विकास कार्यों ने भाजपा को पांव जमाने का मौका दे दिया। इसी का परिणाम रहा कि इस चुनाव में भाजपा को कांग्रेस व पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल के अलावा ओबीसी वर्ग के नेता के रूप में उभरे अल्पेश ठाकौर और दलितों के नेता जिग्नेश मेवाणी की तिकड़ी ज्यादा नुकसान करती नहीं दिखी।
उसमें हार्दिक पटेल के अलावा बाकी दोनों तो कांग्रेस के पक्ष में ज्यादा कुछ कर ही नहीं पाए। वैसे कांग्रेस के लिए यह चुनाव इस मायने में मौका था कि कोई और दल चुनाव मैदान में अपनी ढंग की हाजिरी भी नहीं लगा पाएगा। यह मान कर कि गैर भाजपा मतों का विभाजन भाजपा को फायदा पहुंचाएगा आम आदमी पार्टी (आप) जैसे दल ने कांग्रेस का समर्थन कर दिया और नाम मात्र का चुनाव लड़ा। इस बार भी मुकाबला सीधे ही कांग्रेस और भाजपा में ही था। सीटें भाजपा की घटी और कांग्रेस की बढ़ी लेकिन वोट फीसद दोनों के ही बढ़े। चुनाव नतीजों ने कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए चुनौती और बढ़ा दी। वैसे तो तय था लेकिन हिमाचल प्रदेश की हार से कांग्रेस शासित राज्यों की संख्या एक और कम हो गई। हिमाचल प्रदेश में भाजपा को बड़ी जीत की उम्मीद थी, वैसे नतीजे नहीं आए। गुजरात के नतीजों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताकत को पहले से ज्यादा बढ़ा दिया। अब भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में पूरे जोश से जुटनेवाली है।