पंचायती राज की भूमिका
A report by अभिजीत मोहन
आजादी के बाद देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए ढेर सारे प्रयास हुए। इन्हीं प्रयासों में से एक है-पंचायतीराज व्यवस्था की स्थापना। इतिहास में झांके तो सबसे पहले ब्रिटिश शासन काल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लार्ड रिपन ने स्वायत्त शासन की स्थापना का प्रयास किया लेकिन वह सफल नहीं हुआ। इसके उपरांत ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वशासन संस्थाओं की स्थिति की जांच करने तथा उसके संबंध में सिफारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया, जिसके तहत 1920 में संयुक्त प्रांत, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए कानून बनाए गए। पंचायती राज व्यवस्था को लोकतांत्रिक जामा पहनाने का काम आजादी के बाद शुरू हुआ। 1993 में संविधान में 73वां संशोधन करके पंचायत राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता दी गई। बाद में संविधान में भाग 9 को फिर से जोड़ कर तथा इस भाग में सोलह नए अनुच्छेदों को मिलाकर संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर पंचायत के गठन, पंचायत के सदस्यों के चुनाव, सदस्यों के लिए आरक्षण तथा पंचायत के कार्यो के संबंध में व्यापक प्रावधान किए गए।
स्वतंत्र भारत में पंचायतीराज व्यवस्था महात्मा गांधी की देन है। वे स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही ब्रिटिश सरकार पर पंचायतों को पूरा अधिकार देने का दबाव बना रहे थे। आजादी के बाद 2 अक्टूबर, 1952 को जब सामुदायिक विकास कार्यक्रम प्रारंभ किया गया तो सरकार की मंशा थी कि गांधी के पंचायतीराज की संकल्पना को आकार दिया जाए। इस मंशा के मुताबिक ही खंड को इकाई मानकर खंड के विकास के लिए सरकारी मुलाजिमों के साथ सामान्य जनता को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने का प्रयास किया गया। लेकिन जनता को वास्तविक अधिकार न दिए जाने के कारण यह कार्यक्रम सफेद हाथी सिद्ध हुआ। सामुदायिक कार्यक्रम की असफलता के बाद पंचायतीराज व्यवस्था को परवान चढ़ाने के लिए 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में ग्रामोद्धार समिति का गठन किया गया। इस समिति ने भारत में त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू करने की सिफारिश की। इसी समिति ने पंचायती राज को सशक्त बनाने के लिए गांवों के समूहों के लिए प्रत्यक्षत: निर्वाचित पंचायतों, खंड स्तर पर निर्वाचित तथा नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों और जिला स्तर पर जिला परिषद गठित करने का सुझाव दिया।
महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिश को 1 अप्रैल, 1958 को लागू कर दिया गया। राजस्थान राज्य की विधानसभा ने इसी समिति के सुझाव के आधार पर 2 सितंबर,1959 को पंचायतीराज अधिनियम की संस्तुति कर दी। 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में पंचायतीराज व्यवस्था को सबसे पहले लागू किया गया। इसके बाद पंचायतीराज व्यवस्था को अन्य राज्यों ने भी अपने यहां लागू करना शुरू कर दिया। मसलन 1959 में आंध्र प्रदेश, 1960 में असम, तमिलनाडु और कर्नाटक, 1962 में महाराष्ट्र, 1963 में गुजरात और 1964 में पश्चिम बंगाल में लागू किया गया। लेकिन बलवंत राय मेहता समिति की सिफाारिशों के तहत पंचायतीराज व्यवस्था में कई गड़बड़ियां देखने को मिली। इसे दूर करने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। 1978 में इस समिति ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। इस समिति ने कुछ महत्त्वपूर्ण सिफारिश की। मसलन राज्य में विकेंद्रीकरण की प्रारंभिक शुरुआत जिला स्तर से हो, मंडल पंचायत को जिला स्तर से नीचे रखा जाए जिसमें करीब पंद्रह-बीस हजार की जनसंख्या और 10-15 गांव शामिल हों।
मेहता समिति ने गांव पंचायत और पंचायत समिति को समाप्त करने की बात कही। समिति ने मंडल पंचायत और जिला पंचायत का कार्यकाल चार वर्ष तथा विकास योजनाओें को जिला स्तर के माध्यम से तैयार करने और उसका क्रियान्वयन मंडल पंचायत से कराने की सिफारिश की लेकिन सरकार ने इसे खारिज कर दिया। 1985 में पीवीके राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करके उसे ग्रामीण विकास और गरीबी दूर करने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था पर सुझाव देने की बात कही गई। इस समिति ने राज्य विकास परिषद, जिला परिषद, मंडल पंचायत और गांव स्तर पर सभा के गठन की सिफारिश के साथ अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं के लिए आरक्षण देने की बात कही। लेकिन इसे भी अमान्य कर दिया गया। इसके बाद एलएम सिंघवी की अध्यक्षता में समिति गठित करके उसे पंचायतीराज संस्थाओं के कार्यों की समीक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई। इस समिति ने गांवों के पुनर्गठन की सिफारिश पर बल दिया। इसी समिति ने गांव पंचायतों को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की बात कही। पंचायतीराज व्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाने के लिए 1988 में पीके थुंगन समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अहम सुझाव के तौर पर कहा कि पंचायतीराज संस्थाओं को संविधान सम्मत बनाया जाना चाहिए। इस समिति की सिफारिश के आधार पर पंचायतीराज को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए 1989 में 64वां संविधान संशोधन लोकसभा में पेश किया गया, जिसे लोकसभा ने तो पाारित कर दिया लेकिन राज्यसभा ने नामंजूर कर दिया। 16 दिसंबर, 1991 को 72 वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया और उसे संसद की प्रवर समिति को सौंप दिया गया। 72वें संविधान संशोधन विधेयक के क्रमांक को बदलकर 73 वां संविधान संशोधन विधेयक कर दिया गया। 22 दिसंबर 1992 को लोकसभा और 23 दिसंबर 1992 को राज्यसभा द्धारा 73 वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी गई। 17 राज्य विधानसभाओं द्वारा मंजूरी दिए जाने के बाद 20 अप्रैल, 1993 को राष्ट्रपति ने भी अपनी सहमति दे दी।
73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया। ग्रामसभा की शक्तियों के संबंध में राज्य विधान मंडल द्वारा कानून बनाने का उल्लेख है। केरल, जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, नगालंैड और मिजोरम में एक स्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू है। असम, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, ओडिशा और हरियाणा में दोस्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू है। उत्तर प्रदेश बिहार,राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, हिमाचल, गुजरात, पंजाब, गोवा एवं तमिलनाडु आदि में त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था लागू है। वहीं पश्चिम बंगाल में चार स्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू है। वहां आंचलिक परिषद का भी गठन किया गया है। सभी स्तर की पंचायतों के सभी सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्धारा प्रत्येक पांचवें वर्ष में किया जाता है। गांव स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रुप से तथा जिला का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है। पंचायत के सभी स्तरों पर सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों के लिए उनके अनुपात में आरक्षण का प्रावधान है। सभी स्तर के पंचायतों का कार्यकाल पांच वर्ष है। लेकिन इसका विघटन पांच वर्ष पहले भी किया जा सकता है।
पंचायतों को कौन-कौन सी शक्तियां प्राप्त होगी और वे किन जिम्मेदारियों का निर्वहन करेंगी, इसका उल्लेख संविधान में 11वीं अनुसूची में किया गया है। ग्राम पंचायत में 6 समितियों का उल्लेख है- जैसे, नियोजन एवं विकास समिति, निर्माण कार्य समिति, शिक्षा समिति, प्रशासनिक समिति, स्वास्थ्य एवं कल्याण समिति तथा जल प्रबंधन समिति। क्षेत्र पंचायत एवं जिला पंचायत में भी इसी प्रकार की समितियों की व्यवस्था का उल्लेख है। पंचायतीराज व्यवस्था के लागू हो जाने से विकास की अपार संभावनाओं को बल मिला है। गांव के लोगों में जागरूकता बढ़ी है। लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग हुए हैं। साथ ही लालफीताशाही जिसकी वजह से कार्यों में अड़चन देखने को मिलता था, उस पर विराम लग गया है। पंचायतीराज व्यवस्था ने विकास का विकेंद्रीकरण करके उसका लाभ आम जनता तक पहुंचाने में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। आज ग्रामीण जीवन की सकारात्मक प्रगति से साफ है कि जिस उद्देश्य से पंचायतीराज व्यवस्था का ताना-बाना बुना गया था, वह अपने लक्ष्य को आसानी से साध रहा है। प्रत्येक पंचायत एक छोटा गणराज्य होता है, जिसकी शक्ति का स्रोत पंचायतीराज व्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र की सफलता भी इसी गणराज्य में निहित है।