दुनिया मेरे आगे- परंपरा बनाम विवेक
बंशीधर मिश्र
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में, जब विज्ञान की उपलब्धियां आसमान छू रही हैं, तब हमारा समाज आज भी अंधविश्वासों की अंधेरी सुरंग में भटकता दिख रहा है। गड़ा हुआ धन पाने के लिए कोई आदमी अपने ही बच्चे की बलि चढ़ा देता है, प्रेम करने के एवज खाप पंचायतें किसी परिवार के बेटे-बेटियों को फांसी पर लटका देती हैं, घर के सूने बंद कमरे में सोई किसी महिला की चोटी अचानक कट जाती है। समाज और पुलिस से लेकर मनोवैज्ञानिक तक इस रहस्य का पता लगाने में लगे हैं कि इसके पीछे वजह क्या है- किसी गिरोह की शैतानी हरकत या फिर लोगों के बीच फैला एक तरह का उन्माद! भारतीय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कई बार दो अलग-अलग या फिर विपरीत दिशा वाली पटरी पर दौड़ती नजर आती है। आधुनिकता के तमाम दावों के बीच दुनिया के विशालतम लोकतंत्र में प्रेम करने के अपराध में कोई पंचायत प्रेमी युगल को फांसी पर लटकाने की सजा सुना देती है। सरकार और अदालतों की तमाम कोशिशों के बावजूद इन पंचायतों के क्रूर फैसले हर साल कई लोगों की जान लेते रहते हैं। हरियाणा के मनोज-बबली कांड ने समूची व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया था, जब लड़की के घर वालों ने प्रेम विवाह करने वाली अपनी बेटी और दामाद को निर्ममता के साथ मौत के घाट उतार दिया था।
करीब दो सदी पहले राजा राममोहन राय ने बड़ी मेहनत से लड़ कर सती प्रथा को खत्म करने के लिए कामयाब लड़ाई लड़ी थी। लेकिन वैसी घटनाएं आज भी कभी-कभार सुनने में आ जाती है। कोई गांव किसी अबला को देवी बनाने के भ्रम में पति की मौत के साथ ही लाश बना कर चिता पर जला देता है। रूपकुंवर की ददर्नाक कहानी कोई भी संवेदनशील व्यक्ति कैसे भूल सकता है, जिसे धोखे से पति की लाश के साथ जिंदा फूंक दिया गया था। जमीन से गड़ा धन पाने की लालसा में बच्चे से लेकर बड़ों तक की बलि चढ़ाने की रोंगटे खड़ी कर देने वाली घटनाएं हर साल देखने-सुनने को मिलती हैं।सच तो यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर समाज हावी हुआ है। यह सच नहीं होता तो आम चुनावों में टिकट बंटवारे से लेकर कैबिनेट में पदों के बंटवारे तक जातीय समीकरणों का ध्यान नहीं रखा जाता। जड़ परंपरा को निबाहने वालों की तो दूर, बहुत प्रगतिशील वामपंथी भी अपने बेटे-बेटी की शादी में जाति का ध्यान रखते हैं। ऐसे समाज में रूढ़ियों और अंधविवासों के पनपने की संभावनाएं नहीं होंगी तो आखिर और कहां होंगी! यह कोई संयोग नहीं कि तमिलनाडु में जब जलीकट्टू पर प्रतिबंध लगाने का अदालत द्वारा आदेश दिया गया तो इसके विरोध में उन्माद फैल गया। आखिरकार राज्य की सिफारिश पर केंद्र को विशेष व्यवस्था के तहत सैकड़ों साल से चली आ रही इस परंपरा को जारी रखने की छूट दी गई। यहां यह सवाल जायज है कि अधिक ताकतवर कौन है- कानून या परंपराएं? निश्चित रूप से परंपराएं आज भी हावी हैं। लेकिन हमारे देश में अंधविश्वास भी परंपरा का हिस्सा मान लिया गया है!
समाज रिश्तों का समूह होता है, भीड़ का जमावड़ा नहीं। भीड़ उन्माद के सहारे जीती है, समाज नहीं। परंपराओं को ढोने वाला समाज हमेशा अविवेकी हो, जरूरी नहीं। मगर उन्मादी भीड़ से कभी विवेक की कल्पना नहीं की जा सकती। चोटी काटने की फूहड़-सी अफवाह को सच मान कर किसी बुजुर्ग औरत की जान ले लेना किसी समाज का नहीं, अविवेकी और उन्मादी समूहों का ही काम हो सकता है।भले हमारा लोकतांत्रिक ढांचा त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था की बुनियाद पर गढ़ा गया हो, मगर हमारी पंचायतें सत्यनिष्ठा और न्याय के रास्ते से बहुत दूर भटक गई हैं। हमने आधुनिक होने के लिए पश्चिम के विज्ञान की नकल तो कर ली, मगर पारंपरिक आडंबरों की खोल से बाहर नहीं निकल पाए। भारतीय समाज की यही सबसे बड़ी विडंबना है। जब हम परंपराओं की बात करते हैं तो कई बार वे सिर्फ छद्म आडंबर मात्र होती हैं। समाज और आधुनिकता के असली तत्त्व को भारतीय समाज का अधिकांश हिस्सा समझ ही नहीं पाया। मठों और तीर्थों पर पंडे पलते रहे और बाकी आगे बढ़ने की बातें गुमनामी में चली गर्इं।
ऐसा दौर बहुत खतरनाक होता है जहां अफवाहें सच्चाई की जगह लेती नजर आएं। फिर चाहे वह गड़ा धन पाने के लालच में नरबलि का मामला हो या गोमांस या गोवध से जुड़ी कोई भी बात! जड़ परंपराओं पर आधारित खाप पंचायतों के अमानवीय और बर्बर फैसले हों या फिर किसी महिला की चोटी काटने की घटना, उनमें कोई तात्त्विक फर्क नहीं। परंपराएं चाहे धर्म के नाम पर गढ़ी गई हों या फिर सामाजिक व्यवस्था की सहूलियत के लिए, अगर वे विवेक की कसौटी पर सही नहीं हैं, तो उन्हें खारिज करने में गुरेज नहीं होना चाहिए। जो परंपराएं देशकाल और मानवीय मूल्यों की कसौटी पर उपयोगी नहीं साबित हों, उनसे छुटकारा पाना ही बेहतर है।