बिहार: 98 साल की उम्र में हासिल की एमए की डिग्री, कुलपति ने कहा- विश्वविद्यालय के लिए स्वर्णिम दिन
अगर मनुष्य कुछ करने को ठान ले, तो मंजिल तक पहुंचने में उम्र कभी आड़े नहीं आती। ऐसा ही कुछ साबित कर दिखाया है पटना के राजकुमार वैश्य ने, जिसने 98 वर्ष की उम्र में स्नातकोत्तर (एमए) की डिग्री हासिल कर समाज को एक संदेश दिया है। बिहार के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने मंगलवार को नालंदा खुला विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में बुजुर्ग वैश्य को स्नातकोत्तर की डिग्री प्रदान की। पटना के राजेंद्र नगर के रोड नंबर पांच में रहने वाले राजकुमार वैश्य को अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री मिली है। उन्होंने इसी साल सितंबर में हुई परीक्षा द्वितीय श्रेणी से पास की। मंगलवार को जब वह अपनी डिग्री लेने पहुंचे, तो लोगों ने उनका स्वागत किया। वैश्य ने कहा, “किसी भी इच्छा को पूरा करने में उम्र कभी आड़े नहीं आती। मैंने अपना सपना पूरा कर लिया है। अब मैं पोस्ट ग्रैजुएट हूं। मैंने दो साल पहले यह तय किया था कि इस उम्र में भी कोई अपना सपना पूरा कर सकता है।”
उन्होंने नवयुवकों को खुद संघर्ष कर जीतने की मिसाल बनने की सलाह देते हुए कहा कि नई पीढ़ी को जिंदगी में हमेशा कोशिश करते रहना चाहिए। वैश्य का जन्म सन् 1920 में उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ था। मैट्रिक और इंटर की परीक्षा उन्होंने बरेली से ही साल 1934 और साल 1936 में पास की थी। इसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से 1938 में ग्रेजुएशन की परीक्षा पास की और यहीं से कानून की भी पढ़ाई की। इसके बाद झारखंड के कोडरमा में नौकरी लग गई। कुछ ही दिनों बाद उनकी शादी हो गई। वैश्य ने बताया, “वर्ष 1977 में नौकरी से रिटायर होने के बाद मैं बरेली चला गया। घरेलू काम में व्यस्त रहा, बरेली में रहा, बच्चों को पढ़ाया, लेकिन अब मैं अपने बेटे और बहू के साथ रहता हूं। उम्र काफी हो गई, लेकिन एमए की पढ़ाई करने की इच्छा खत्म नहीं हुई थी।”
उन्होंने कहा, “मैंने एक दिन अपने दिल की बात अपने बेटे और बहू को बताई। बेटे प्रोफेसर संतोष कुमार और बहू भारती एस. कुमार दोनों प्रोफेसर की नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। वे दोनों भी इसके लिए तैयार हो गए और आज मेरी इच्छा पूरी हो गई।” वैश्य ने अपनी सफलता का श्रेय बहू भारती और बेटे संतोष कुमार को दिया और कहा, “यह हमारे लिए गर्व का क्षण है।” वहीं, संतोष ने कहा, “पिताजी ने एमए करने की इच्छा जताई थी, तब मैंने नालंदा खुला विश्वविद्यालय से संपर्क किया था और उनका नामांकन कराया था। विश्वविद्यालय प्रशासन ने खुद घर आकर पिताजी के नामांकन की औपचारिकताएं पूरी की थीं।” नालंदा खुला विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर आऱ क़े सिन्हा ने विश्वविद्यालय के इतिहास में इसे स्वर्णिम दिन करार दिया है।