काल का आदि और अंत
काल अर्थात समय क्या है? भारतीय ऋषियों की मान्यता है कि ईश्वर की तरह काल का अंत नहीं होता है अर्थात वह उन्हीं की तरह अनादि है और इसका नाश भी कभी नहीं होता। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग, इनका नाश हुआ करता है। दिन, रात, मास, वर्ष बीता करते हैं, पर कोई काल अवश्य वर्तमान रहता है। एक कल्प के बीतने पर प्रलयकाल उपस्थित रहता है। इसके बाद वही सतयुग इत्यादि काल हुआ करते हैं। काल का कोई स्वरूप नहीं है। इसकी गति भी ईश्वर की तरह विलक्षण है और बुद्धि तथा विचार से परे हैं। ब्रह्मांड की शुरुआत से पहले काल की संकल्पना का क्या कोई अर्थ है? इस बारे में जब संत आगस्टाइन से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि काल ईश्वर द्वारा रचित ब्रह्मांड का गुण-धर्म है और ब्रह्मांड की रचना से पहले इसका कोई अस्तित्व नहीं था।
यदि हम काल की सामान्य वैज्ञानिक धारणा पर विचार करें तो हमारी पृथ्वी सूर्य को केंद्र मान कर अपनी धुरी पर जब एक चक्कर लगाती है तो दिन-रात होते हैं और जब वह इसके साथ-साथ सूर्य की अपनी परिक्रमा पूरी कर लेती है तो एक वर्ष का काल होता है। दिन रात को हमने चौबीस घंटों में बांटा हुआ है और घंटे को मिनट, फिर सेकेंड में। फिर सेकेंड का भी और सूक्ष्म विभाजन कर सकते हैं। समय को नापने के लिए हमने घड़ी बनाई हुई है। दिन-रात, महीने और वर्ष के लिए कैलेंडर है। पर सौर परिवार में ही हर ग्रह जैसे बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल आदि का दिन-रात पृथ्वी के दिन-रात के बराबर नहीं होता है। अर्थात अलग-अलग ग्रहों के दिन-रात की अवधि अलग-अलग होती है। फिर इस अनादि और अनंत ब्रह्मांड में असंख्य आकाशगंगाएं, सूर्य और ग्रह हैं जिनका हिसाब लगाना भी मुश्किल है। उनकी अलग-अलग गति और काल होगा। काल के बारे में जब सामान्य रूप से विचार करते हैं तो किसी भी व्यक्ति के अनुभव हमें अनेक घटनाओं के क्रम में दिखाई देते हैं। इसी क्रम में हमें जितनी घटनाओं का स्मरण होता है उनमें से प्रत्येक को पूर्व और पश्चात नामक लक्षणों के अनुसार क्रमबद्ध करते हैं। पर इन लक्षणों का और अधिक विश्लेषण संभव नहीं है। अत: प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना-अपना स्व-काल अथवा व्यक्तिगत काल होता है। पर यह काल स्वत: नापा नहीं जा सकता। यह हो सकता है कि हम इन घटनाओं का संबंध संख्याओं से इस प्रकार जोड़ दें कि पूर्व घटना से संबंधित संख्या की अपेक्षा बाद वाली घटना से संबंधित संख्या बड़ी हो। लेकिन संबंध का स्वरूप सर्वथा अनिश्चित और केवल व्यक्तिगत इच्छा पर ही निर्भर हो सकता है। उक्त घटनावली को घटनाओं के क्रम के साथ घड़ी द्वारा प्रस्तुत घटनाओं के क्रम की तुलना करके इस संबंध को निश्चित रूप दिया जा सकता है। घड़ी हम उस यंत्र या वस्तु को कहते हैं जो ऐसी घटनाओं को प्रस्तुत करती है जिनकी गिनती की जा सकती है। हमारी धारणाओं तथा धारणा-समूहों की सार्थकता इसी में है कि वे हमारे विविध अनुभवों को निरूपित करने में सहायता करते हैं। इसके अतिरिक्त और किसी बात से उनका समर्थन नहीं किया जा सकता।
अरस्तू और न्यूटन परम निरपेक्ष काल अथवा समय में विश्वास करते थे। अर्थात वे यह विश्वास करते थे कि दो घटनाओं के बीच के समय के अंतराल को निश्चित रूप से मापा जा सकता है और यह मापांकित समय एक-सा ही होगा, चाहे कोई इसका मापांकन करे, बशर्ते वे एक अच्छी घड़ी का प्रयोग करें। काल अंतरिक्ष से पूर्णत: मुक्त और पृथक था। इस विचार को अधिसंख्य लोग सामान्य बौद्धिक मत के रूप में लेंगे। बहरहाल, अंतरिक्ष और काल के संबंध में हमें अपने विचारों में परिवर्तन करना पड़ा है, क्योंकि शून्य अंतरिक्ष में काल का क्या अर्थ हो सकता है, जहां कोई गतिविधि अथवा पिंडों की कोई हलचल ही न हो? हमारी काल संबंधी धारणाएं उस समय ठीक हो सकती हैं, जब हम धीमी गति से चलने वाले ग्रहों जैसी वस्तुओं अथवा एक स्थैतिक ब्रह्मांड के संदर्भ में उन्हें प्रयोग करते हैं। लेकिन उन वस्तुओं के लिए वे बिलकुल ही कार्य नहीं करतीं, जो अत्यंत वेग अथवा प्रकाश के वेग पर चल रही हैं। कुल मिलाकर हमारा समय ब्रह्मांड के पिंडों और उनकी गतियों के सापेक्ष ही है। आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार यदि कोई दो घटनाएं किसी प्रेक्षक की दृष्टि से एक समय पर हों तो इस सिद्धांत के अनुसार तो वे इस प्रेक्षक की अपेक्षा गतिमान किसी अन्य प्रेक्षक की दृष्टि से एक ही समय पर नहीं मालूम होंगी। इसका अर्थ है अब तक जो समय या काल निरपेक्ष माना जाता था वह भी वास्तव में निरपेक्ष नहीं है। यदि कोई दो पे्रक्षक गतिमान हों तो दोनों के लिए समय एक-सा नहीं हो सकता है।
जब अधिकतर लोग एक अपरिवर्तनीय और आवश्यक रूप से स्थैतिक ब्रह्मांड में विश्वास करते थे तो यह प्रश्न कि इसकी कोई शुरुआत थी या नहीं, वास्तव में धर्मशास्त्र या तत्त्व-मीमांसा से संबंधित रह गया था। इस सिद्धांत पर कि ब्रह्मांड पहले से अस्तित्व में था या फिर इस सिद्धांत पर कि यह किसी सीमाबद्ध समय पर इस प्रकार से गतिमान किया गया कि ऐसा दिखाई दे जैसे कि मानो यह सदैव से अस्तित्व में हो- जो कुछ भी समान रूप से देखा गया उसका स्पष्टीकरण दिया जा सकता था। पर 1929 में एडविन हब्बल ने यह महत्त्वपूर्ण प्रेक्षण किया कि आकाश में जहां कहीं भी तुम देखो, दूरस्थ आकाशगंगाएं बहुत तीव्र गति से हमसे दूर भाग रही हैं। दूसरे शब्दों में, ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक समय सभी पिंड परस्पर बहुत समीप रहे होंगे। एक ऐसा समय था जब ब्रह्मांड का सारा पदार्थ एक ही स्थान पर था और इसीलिए उस समय ब्रह्मांड का घनत्व असीमित था। अंतत: यह खोज ब्रह्मांड की उत्पत्ति के प्रश्न को विज्ञान की परिधि में ले आई। हब्बल के प्रेक्षणों ने यह सुझाया कि महाविस्फोट या महानाद के नाम से ज्ञात एक समय था जब ब्रह्मांड अत्यंत सूक्ष्म रूप से छोटा तथा असीमित रूप से घना था। यह कहा जा सकता है कि महानाद के साथ ही समय की उत्पत्ति इस अर्थ में हुई कि इससे पहले के समय को परिभाषित नहीं किया जा सकता। यहां इस तथ्य पर जोर दिया जाना चाहिए कि काल की यह उत्पत्ति समय से संबद्ध उन अवधारणाओं से भिन्न है, जिन पर पहले विचार किया गया था। एक अपरिवर्तनीय ब्रह्मांड में काल की उत्पत्ति कुछ ऐसी वस्तु होती है जिसे ब्रह्मांड से बाहर की किसी शक्ति द्वारा आरोपित किया गया हो, समय की उत्पत्ति के लिए कोई भौतिक आवश्यकता नहीं होती है।
यह कल्पना की जा सकती है कि ईश्वर ने ब्रह्मांड को अतीत में किसी निश्चित समय पर उत्पन्न किया। दूसरी ओर, यदि ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है तो इस तथ्य के भौतिक कारण हो सकते हैं कि उत्पत्ति हुई ही क्यों? एक निरंतर विस्तृत होता हुआ ब्रह्मांड सृष्टिकर्ता का निषेध नहीं करता, पर इस जिज्ञासा को भी अवश्य उत्पन्न करता है कि आखिर उसने अपना कार्य कब पूरा किया होगा। कुल मिलाकर आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत अंतरिक्ष और काल के बारे में हमारे विचारों को आधारभूत रूप से परिवर्तित करने के लिए हमें विवश कर देता है। हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि काल अंतरिक्ष से पूर्णत: पृथक और स्वतंत्र इकाई नहीं है। बल्कि दोनों मिलकर संयुक्त रूप से अंतरिक्ष काल बताते हैं।