Pitru Paksha 2017: पितृपक्ष को माना जाता है अशुभ, पर ये है पुण्यकाल
सामान्य रूप से पितृपक्ष यानि श्राद्ध के काल को मृत व्यक्तियों व पूर्वजों से जोड़ कर देखा जाता है, और कहीं कहीं इसे अशुभ काल माना जाता है, जो इस पावन कालखण्ड की बेहद त्रुटिपूर्ण व्याख्या है। समय के इस हिस्से में अपार संभावना छुपी हुई है। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार यह तो एक ऐसी अदभुत बेला है, जिसमें मानव सृष्टि अपने अल्पप्रयास मात्र से ही बृहद और अप्रतिम परिणाम साक्षी बनती है। आध्यात्म के नजरिये पितृपक्ष रूह और रूहानी यानि आत्मा और आत्मिक उत्कर्ष का वो पुण्यकाल है, जिसमें कम से कम प्रयास से अधिकाधिक फलों की प्राप्ति सम्भव है। आध्यात्म, इस काल को जीवात्मा के कल्याण यानि मोक्ष के लिये सर्वश्रेष्ठ मानता है। जीवन और मरण के चक्र से परे हो जाने की अवधारणा को मोक्ष कहते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्। अर्थात् अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनन्त यात्रा के लिये पूर्ण श्रद्धा से अर्पित कामना, प्रार्थना, कर्म और प्रयास को हम श्राद्ध कहते है। इस पक्ष को इसके अदभुत गुणों के कारण ही पितृ और पूर्वजों से सम्बद्ध गतिविधियों से जोड़ा गया है।
यह पक्ष सिर्फ मरे हुए लोगों का काल है, यह धारणा सही नहीं है। श्राद्ध दरअसल अपने अस्तित्व से, अपने मूल से रूबरू होने और अपनी जड़ों से जुड़ने, उसे पहचानने और सम्मान देने की एक सामाजिक मिशन, मुहिम या प्रक्रिया का हिस्सा थी, जिसने प्राणायाम, योग, व्रत, उपवास, यज्ञ और असहायों की सहायता जैसे अन्य कल्याणकारी सकारात्मक कर्मों और उपक्रमों की तरह कालांतर में आध्यात्मिक और धार्मिक चादर ओढ़ ली।
वक्त के इस पाक टुकड़े को अशुभ काल मानना नादानी है। इस पखवाड़े में स्थूल गतिविधियों को महत्व नहीं दिया गया क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टिकोण स्थूल समृद्धि और भौतिक सफलता को क्षणभंगुर यानि शीघ्र ही मिट जाने वाला मानता हैं, और भारतीय दर्शन इतने कीमती कालखंड का इतना सस्ता उपयोग नहीं करना चाहता। पर सनद रहे कि, ऐश्वर्य की कामना रखकर महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली समृद्धि की साधना भी इस पक्ष के बिना पूर्ण नहीं होती। महालक्ष्मी आराधना का द्वितीय खण्ड में इस पक्ष के प्रथम सप्ताह का प्रयोग होता है। संदर्भ के लिए लक्ष्मी उपासना का काल भाद्रपद के शुक्ल की अष्टमी यानि राधा अष्टमी से आरम्भ होकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक होता है। परम्पराओं के अनुसार इस काल में श्राद्ध, तर्पण, उपासना, प्रार्थना से पितृशांति के साथ जीवन के पूर्व कर्म जनित संघर्ष से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
धर्मसिन्धु में श्राद्ध के लिए सिर्फ पितृपक्ष समेत 96 काल खण्ड का विवरण प्राप्त होता है, जो इस प्रकार है-
वर्ष की 12 अमावास्यायें, 4 पुणादितिथियां, 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रान्तियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 पितृपक्ष, 5 अष्टका, 5 अन्वष्टका और 5 पूर्वेद्यु:।
मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते यानि तीन प्रकार के श्राद्ध नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य का उल्लेख मिलता है। यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है। पर भविष्य पुराण और विश्वामित्र स्मृति द्वादश श्राद्धों यदा, नित्य, नैमित्तिक, काम्यम, वृद्धि, सपिण्ड, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धयर्थ, कर्मांग, तीर्थ, यात्रार्थ और पुष्टि का उल्लेख करती है।