मर्ज का इलाज एकीकरण
संपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट के चलते पिछले कुछ सालों से सरकारी क्षेत्र के बैंकों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गैर निष्पादित आस्तियों (एनपीए) ने सरकारी बैंकों के मुनाफे में जबर्दस्त सेंध लगाई है और बैंक पूंजी के अभाव में ऋण वितरण का कार्य नहीं कर पा रहे हैं। माना जा रहा है कि समान प्रदर्शन करने वाले बैंकों के विलय से गैर-निष्पादित आस्तियों के समाधान की रणनीति को अमलीजामा पहनाने में आसानी होगी।
भारतीय स्टेट बैंक के साथ उसके पांच सहयोगी बैंकों और एक महिला बैंक के विलय के बाद से ही माना जा रहा था कि अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का भी जल्द ही विलय किया जाएगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एकीकरण के प्रारूप को मंजूरी दे दी है। हालांकि वित्त वर्ष 2017 में भारतीय स्टेट बैंक का अपना प्रदर्शन उम्दा होने के बावजूद सहयोगी बैंकों के कमजोर प्रदर्शन के कारण स्टेट बैंक समूह का समग्र परिणाम खराब रहा, लेकिन इसे अस्थायी माना जा सकता है। बैंक और सरकार दोनों ऐसा ही मान रहे हैं। इस आलोक में विलय की शुरुआत चालू वित्त वर्ष में की जा सकती है। विलय की प्रक्रिया में किसी तरह के नकद सौदे नहीं किए जाएंगे। इसकी जगह पर शेयरों की अदला-बदली की जाएगी। भले ही सरकार चाहती है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का आपस में विलय हो, लेकिन बैंक यूनियनें ऐसा नहीं चाहती हैं। इसी मुद्दे पर 22 अगस्त, 2017 को बैंककर्मियों ने हड़ताल भी की थी।
घोषित नियमों के मुताबिक विलय की प्रक्रिया की पहल बैंकों के बोर्डों को करनी होगी। सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंक प्रस्तावित एकीकरण पर चर्चा कर रहे हैं। विलय का निर्णय, शेयरों का मूल्यांकन, शेयरों की अदला-बदली और अल्पांश शेयरधारकों के साथ चर्चा के बाद इसकी सूचना स्टॉक एक्सचेंज को दी जाएगी। इसके बाद केंद्रीय बैंक वैकल्पिक व्यवस्था और विलय के प्रस्ताव पर समीक्षा करेगा। अंतिम निर्णय मंत्रिमंडल द्वारा किया जाएगा। वैकल्पिक व्यवस्था विनिवेश प्रस्तावों की मंजूरी के लिए लागू ढांचे की तरह ही होगी। इस आलोक में बैंकों को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड के निर्देशों का अनुपालन करना होगा। विलय की अंतिम योजना को केंद्र सरकार केंद्रीय बैंक की सलाह से अधिसूचित करेगी। सरकार ने कहा है कि वह विलय के लिए बैंकों पर दबाव नहीं डालेगी। प्रस्ताव लाभकारी लगने पर बैंक इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन मौजूदा परिप्रेक्ष्य में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय ही एकमात्र विकल्प है, क्योंकि बढ़ते एनपीए के कारण बैंकों के पास ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय का रोडमैप बैंक बोर्ड ब्यूरो ने तैयार किया है और इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को छह समूहों में बांटा गया था। बैंकों के समूहों का निर्णय मानव संसाधन, ई-गवर्नेंस, आंतरिक लेखा-परीक्षा, धोखाधड़ी, सीबीएस (कोर बैंकिंग सोल्यूशन) और वसूली को आधार बना कर लिया गया है। हालांकि व्यावहारिकता के आधार पर इसमें बदलाव किया जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक शुरू में बैंक आॅफ बड़ौदा और केनरा बैंक जैसे बड़े बैंक, छोटे बैंकों मसलन, देना बैंक, विजया बैंक, यूको बैंक, यूनाइटेड बैंक आॅफ इंडिया और यूनियन बैंक का अधिग्रहण कर सकते हैं। इस कवायद का मकसद बैंकों को मजबूत बनाना है। बैंकों को सुदृढ़ और प्रतिस्पर्धी बनाने का निर्णय वाणिज्यिक आधार पर लिया जाएगा। विलय बैंकिंग कंपनियां अधिग्रहण और अंडरटेकिंग हस्तांतरण अधिनियम के तहत किया जाएगा।
गौरतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय पर सन 2003 के बाद कई बार विचार किया गया, लेकिन कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जा सकी। मानव संसाधन, सूचना एवं प्रौद्योगिकी, वेतन और भत्ते, प्रणाली आदि में एकरूपता का नहीं होना इसका एक बहुत बड़ा कारण था। यों यूनियन को विलय के लिए राजी करना, मानव संसाधन का फिटमेंट, विसंगति की स्थिति में क्षतिपूर्ति की व्यवस्था आदि भी इस मामले में महत्त्वपूर्ण अड़चने थीं। पूर्व में दो सरकारी उपक्रमों एअर इंडिया और इंडियन एअरलाइंस के विलय में सबसे बड़ा रोड़ा मानव संसाधन का एकीकरण ही रहा था।
सरकार के पास सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय के संबंध में सबसे व्यावहारिक सुझाव आरएस गुजराल की अध्यक्षता में बनी समिति की रिपोर्ट है। समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट जनवरी, 2012 में दी थी, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आपस में मिला कर सात बड़े बैंक बनाने का सुझाव दिया गया था। भारत में फिलहाल सात बड़े आकार और पूंजी वाले बैंक जैसे भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक आॅफ इंडिया, बैंक आॅफ इंडिया, सेंट्रल बैंक आॅफ इंडिया, केनरा बैंक और बैंक आॅफ बड़ौदा हैं। लेकिन सरकार का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए देश में इनसे बड़े बैंकों की जरूरत है, जिनकी पहचान विश्वस्तरीय हो। गौरतलब है कि सहयोगी बैंकों के विलय के बाद भारतीय स्टेट बैंक वैश्विक स्तर पर पचास बड़े बैंकों की श्रेणी में आ गया है।
संपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट के चलते पिछले कुछ सालों से सरकारी क्षेत्र के बैंकों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गैर निष्पादित आस्तियों (एनपीए) ने सरकारी बैंकों के मुनाफे में जबर्दस्त सेंध लगाई है और बैंक पूंजी के अभाव में ऋण वितरण का कार्य नहीं कर पा रहे हैं। माना जा रहा है कि समान प्रदर्शन करने वाले बैंकों के विलय से गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) के समाधान की रणनीति को अमलीजामा पहनाने में आसानी होगी। स्थिति इतनी खराब है कि केवल वित्त वर्ष 2016-17 में एनपीए में एक लाख करोड़ रुपए की बढ़ोतरी हुई है। इधर बैंकों को बासेल तृतीय के मानकों को वर्ष 2019 तक पूरा करने के लिए लगभग पांच लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी। जाहिर है, पूंजी की कमी को एकीकरण की मदद से कुछ हद तक दूर किया जा सकता है।
बैंकिंग क्षेत्र में विलय पहले से होते रहे हैं। सरकार उन्नीस क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का विलय भी बीते सालों में कर चुकी है। पूर्व में हैदराबाद स्थित निजी क्षेत्र के ग्लोबल ट्रस्ट बैंक (जीटीबी) और यूनाइटेड वेस्टर्न बैंक (यूडब्लूबी) का भी क्रमश: ओरियंटल बैंक आॅफ कामर्स और आइडीबीआइ बैंक में विलय किया गया था। स्टेट बैंक आॅफ सौराष्ट्र और स्टेट बैंक आॅफ इंदौर का विलय क्रमश: 2008 और 2010 में भारतीय स्टेट बैंक के साथ हुआ था। इनके अधिकारियों की पदानुसार वरीयता में कटौती की गई थी। रोजगार के संकट के दौर में इस तरह की विसंगति मायने नहीं रखती हैं, लेकिन जो अधिकारी कॅरियर में आसमान छूना चाहते हैं, उनके सपनों का क्या होगा?
इसमें दो राय नहीं कि बैंकों के विलय के बाद परिचालन लागत और दूसरे खर्चों में कमी, लाभ में बढ़ोतरी, प्रदर्शन में बेहतरी, पूंजी निर्माण में तेजी आदि संभव हो सकेंगे। इससे प्रशिक्षित मानव संसाधन में इजाफा होगा, प्रशिक्षण के खर्च में कमी, पूंजी और संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि होने की भी संभावना है। यों इस क्रम में मानव संसाधन के स्तर पर असंतोष पनपने की भी गुंजाइश है, क्योंकि मानव संसाधन के समायोजन का परिदृश्य अभी तक कर्मचारियों के बीच साफ नहीं हो सका है। प्रोन्नति को लेकर भी कर्मचारियों में आशंकाएं बनी हुई हैं।
भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश में बैंकिंग की सुविधा गली-मुहल्लों तक पहुंचाने के लिए ग्रामीण क्षेत्र से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधा उपलब्ध कराना सरकार के लिए आज भी एक बड़ी चुनौती है। विलय के बाद ग्रामीण क्षेत्र में इनकी उपस्थिति में और भी इजाफा होगा। जो हो, भारत के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वरूप का ताना-बाना बड़े बैंक के अनुकूल है, क्योंकि बड़े बैंक ही इतने बड़े देश में समान रूप से बेहतर ग्राहक सुविधाएं मुहैया करा सकते हैं। वैश्विक उपस्थिति होने से बैंकों के ग्राहकों को देश व विदेश दोनों जगहों पर समान रूप से सेवा मिल सकेगी।
कहा जा सकता है कि परिचालन और दूसरे खर्चों में कटौती को सुनिश्चित करने से बड़े बैंकों के लाभ में इजाफा होगा। पूंजी की उपलब्धता रहने से वे सस्ती दर पर ग्राहकों को कर्ज भी दे सकेंगे। मौजूदा समय में छोटे बैंक पूंजी की कमी के कारण न तो अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग मानकों को पूरा कर पा रहे हैं और न ही सस्ती दर पर ग्राहकों को कर्ज उपलब्ध करा पा रहे हैं। बेहतर तकनीक के अभाव में उनकी ग्राहक सेवा भी अच्छी नहीं है। ऐसे में विलय के बाद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हर मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन करेंगे, इसकी उम्मीद की जा सकती है।