राजकाज- साख पर सवाल
मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’ या ‘मेरे पास मां है’। इन शब्दों को लिखा किसी और ने लेकिन इनसे पहचान उनकी बनी जो इसे बोलते हुए देखे गए। यही है बाजार का सिनेमाई मूल्य। शब्द और भाव से ज्यादा चेहरे का मूल्य तय करने वालों ने जयपुर में साहित्य का नया बाजार सजाया और साहित्य के नाम पर उन चेहरों को मंचासीन किया जो भीड़ खींच सकते हैं और प्रायोजक ला सकते हैं। जयपुर से निकली साहित्योत्सवों की यह बीमारी शहर दर शहर फैलने लगी जिसमें मुख्य अतिथि अनुपम खेर या मनोज बाजपेयी के साथ एक दुबका हुआ साहित्यकार भी मिल जाएगा। साहित्य के नाम पर उत्सव चलाने का यह खेल साहित्य को मनोरंजन और बिकाऊ चेहरों तक सिकोड़ रहा है। साहित्य के नाम पर आप दलाई लामा से लेकर अनुपम खेर तक को बिठाएं और सदी के महानतम साहित्यिक कार्यक्रम का ताज खुद से अपने सिर पर सजा लें। साहित्य के भाव को बाजार में भटका रहे इन साहित्योत्सवों के खिलाफ इस बार का बेबाक बोल।
ग्रेटेस्ट लिटरेरी शो आॅन द अर्थ’ यानी सदी का महानतम साहित्यिक तमाशा (शो यानी हिंदी में कार्यक्रम, प्रदर्शन और लीला भी। फिलवक्त तमाशा का भाव ही सही लग रहा)। जयपुर साहित्योत्सव ने अपना नारा यही बना रखा है। साल 2006 में शोभा डे सहित 18 लेखकों के साथ शुरू हुए इस साहित्योत्सव ने जिसमें 100 लोगों ने शिरकत की थी आज खुद ही धरती का सबसे महानतम होने का तमगा भी लगा लिया है। अमीश त्रिपाठी से लेकर चेतन भगत तक को महान साहित्यकारों की कतार में बिठाने वाले इस महोत्सव के लिए ही शायद सोहा अली खान ने किताब लिख डाली और उनकी किताब के लोकार्पण के साथ ही उन्हें जयपुर जलसे का न्योता मिल गया था। जयपुर के मंच पर सोहा और साहित्य का मेल ही इसकी दशा और दिशा की कहानी कह रहा है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की आत्मकथा से बेहतर साहित्यिक परिघटना और क्या हो सकती है जिसका विमोचन इस उत्सव में होगा।
जयपुर साहित्यिक महोत्सव साहित्यकारों को एक विशाल मंच देने का नारा लगा कर शुरू हुआ था। लेकिन दिग्गी पैलेस में कलम के साथ विज्ञापनदाताओं की दीवार पर इसकी ‘डर्टी पिक्चर’ भी शुरू हो गई जिसका मकसद बन गया मनोरंजन, मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन। मनोरंजन, अर्थ और विज्ञापन जगत के चेहरों के साथ एक-दो कलम वाले भी बुला लिए जाते हैं नोबेल, पुलित्जर और साहित्य अकादेमी पुरस्कारों की चमक के साथ। और आपकी कलम से ज्यादा आपके चेहरे की कीमत होनी चाहिए ‘शो’ के लिए। लिखने वाले लाखों हैं तो मंच किसे दिया जाए। मंच पर वही चेहरे आएंगे जिन्हें मुख्य मीडिया के कैमरे कैद करें। और, जब आपका प्रायोजक ही एक टीवी चैनल है तो फिर क्या कहने। टीवी वाले जब खबरें भी अपना मुनाफा देख कर चलाते हैं तो फिर उनके प्रायोजित मंच पर किन कलमकारों को जगह मिलेगी इसके विश्लेषण की जरूरत नहीं।
जब हामिद करजई जैसा राजनेता, मोहम्मद यूनुस जैसा अर्थशास्त्री, विशाल भारद्वाज जैसा फिल्मकार, रोहन मूर्ति जैसा प्रकाशक, सोनल मानसिंह और जाकिर हुसैन जैसे कलाकार, पद्मश्री कला समीक्षक बीएन गोस्वामी, बायोकेमिस्ट और एनजीओ मालिक प्रणय लाल, छायाकार अबीर वाई हाकू को ही मंच देना था तो आपने अपने ब्रांड के आगे साहित्य क्यों जोड़ा। हामिद करजई जैसे वैश्विक पहुंच वाले राजनेताओं को मंच मिलने की कोई दिक्कत है क्या? आप करजई और अनुराग कश्यप को इसलिए बुलाते हैं क्योंकि ये जब बोलते हैं तो खबर में होते हैं। दलाई लामा जो बहुत खास जगहों के ही आमंत्रण स्वीकारते हैं और जिन्हें बुलाने की हैसियत आम आयोजक नहीं रखते वे आपके मंच पर आसीन होते हैं तो आपकी ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन यह भी तय है कि धर्मगुरु दलाई लामा साहित्यकारों को कोई ताकत नहीं दे पाएंगे। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का साहित्य जगत में बड़ा योगदान है या राजनीतिक जगत में, यह समझ से परे तो नहीं ही है।
आप जिसे साहित्य का सबसे बड़ा कार्यक्रम बता रहे हैं उस तमाशे में सबसे हाशिए पर साहित्य और साहित्यकार ही हैं। आपने अपने तमगे के लिए साहित्य की साख का इस्तेमाल किया। विज्ञापनदाता बड़ी कंपनियों के लिए तो साहित्य चैरिटी की तरह है ही। विज्ञापन, बाजार और राजनीति के चमकते चेहरों के बीच एक-दो साहित्यकारों के नाम पर पैसे खर्च कर दान-पुण्य और गंगा नहान का भाव महसूसा ही जा सकता है। बाकी तो उन्हीं चमचमाते चेहरों को जगह देनी है जो बिकाऊ हैं। आप अपने प्रतीक निशान के नीचे महाश्वेता देवी को जगह दे चुके हैं लेकिन आपके मंच से मीडिया दिखाता तो राजनेताओं और फिल्मकारों को ही है। पत्रकारिता और साहित्य एक-दूसरे से कितने जुड़े हैं, यह तो अलग बहस है लेकिन इन महोत्सवों में जगह पाने वालों में पत्रकार भी खूब हैं। अब अगर हम भारतीय पत्रकारों की सूची देखें तो इनमें वही चेहरे हैं जो आज के दौर में अपनी खबरनवीसी नहीं प्रस्तुतीकरण के लिए जाने जाते हैं। इन मंचों पर हिंदी वालों में एक को छोड़ कर शायद ही किसी को जगह मिलती है। भक्त हो या अभक्त श्रेणी का, इन मंचों पर जगह पाने वाले पत्रकारों की पहचान खबरों को खोजने की नहीं खोजी खबरों पर भाषा और प्रस्तुति की कशीदाकारी और नक्काशी से है।
जयपुर से निकले साहित्योत्सवों ने पत्रकारिता के मानक को प्रस्तुति में बदल दिया है। राम-रहीम पर फैसला आने से पहले कुछ स्थानीय समारोहों को छोड़ कर क्या कभी सिरसा से निकलने वाले ‘पूरा सच’ के संपादक रामचंद्र छत्रपति साहू की शहादत को याद किया गया। गोलियों से भूने जाने के पहले गौरी लंकेश को मुख्यधारा का मीडिया कितना पहचानता था। अपने-अपने कोने से ‘पूरा सच’ बताने वालों का प्रस्तुतीकरण दिल्ली मुख्यालय करता है और वही बिकाऊ चेहरा पत्रकारों की भी अगुआई करता है। जयपुर से फैली लिट फेस्ट की महामारी कसौली से लेकर शहर दर शहर पहुंच रही है जहां साहित्य के नाम पर अनुपम खेर को माइक पकड़ा दिया जाता है, जिनके चेहरे पर चमकती कैमरों की रोशनी साहित्यकारों को स्याह में धकेलती है। सिनेमा यानी मनोरंजन। वह चाहे जावेद अख्तर-शबाना आजमी हों या अनुराग कश्यप। साहित्य वही जो सिनेमा वाले समझाएं। यानी साहित्य जब तक सिनेमा में जाकर मुनाफावसूल नहीं बनेगा वह इस तमाशे में जगह नहीं पाएगा। और, अगर आपने कुछ ऐसा फेसबुकिया तुरंता लिखा है और आपका चेहरा गुटखा कंपनी के साथ शहरों के चौराहे पर टांगने लायक है तो आप सादर आमंत्रित हैं। ‘लिट फेस्ट’ के बड़े से लोगो और मनोज बाजपेयी की आदमकद तस्वीर के नीचे एक दुबका हुआ कलमकार सूक्ष्मदर्शी से दिख ही जाएगा।
जयपुर साहित्योत्सव से चले चलन पर चिंता में दो समांतर भी अपनी जनपक्षधरता के साथ खड़े हुए हैं। लेकिन जब कोई समांतर खड़ा होता है वह किसी अन्य के खिलाफ ही खड़ा हो सकता है। एक ही शहर में तीन जलसे और दो समांतर के नाम पर। खतरा यह है कि जब आप समांतर होते हैं तो मौलिक नहीं होते हैं। मौलिक जो भी है, जैसा भी है उसके खिलाफ समांतर है तो आपके पाठ के उद्धरणों में मौलिक तो आएगा ही। क्या जनसंस्कृति के संघर्ष में जन के अलावा किसी को अन्य बनाने की जरूरत है? जन और साहित्य का जगत बहुत बड़ा है। इसमें न जाने कितनी गतिविधियां हो सकती हैं कितने सरोकार निभाए जा सकते हैं। आपकी पहचान जन के पक्ष में खड़े होने की है, उसे मुखालफत का नाम तो सत्ता देती है। अभी जरूरत है एक जगह इकट्ठा होकर खुद को जोड़ने की। समांतरों के टकराव का भरपूर फायदा उसी बाजार को मिलेगा जो हर जगह जन से जुड़े साहित्य को बेदखल कर रहा है।
साहित्योत्सवों वाला आयोजक शहर साहित्य का नाम लेकर अपने चौराहों पर अनुपम खेर, सोहा अली या चेतन भगत को ही टांगेगा। हम जानते हैं कि महाश्वेता देवी जैसी कलमकार चौराहों पर फोटोशॉप वाली तस्वीर टंगने से नहीं पाठकों के पढ़ने से मकबूल हुई हैं। साहित्यकार पढ़े जाएं तभी साहित्य का भला होगा दिखें थोड़ा कम तो भी चलेगा। जयपुर से निकली बीमारी का टीका जितनी जल्दी खोज लिया जाए उतना अच्छा, नहीं तो यह साहित्य को और बीमार करता जाएगा।