दूसरी नजर- जहां बच्चे उपेक्षित हैं-2

छब्बीस मार्च, 2017 को मैंने एक स्तंभ ‘जहां बच्चे उपेक्षित हैं’ शीर्षक से लिखा था। मैंने कहा था ‘मानव संसाधन विकास की हमारी परिकल्पना में बच्चों का विकास, बच्चों का स्वास्थ्य और बच्चों का पोषण शामिल नहीं है।’ मेरा फोकस बच्चों के पोषण की स्थिति पर था और आंकड़े राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2015-16 पर आधारित थे। मुझे यह भी जोड़ना चाहिए था कि मानव संसाधन की हमारी परिकल्पना में ‘बच्चों की शिक्षा और बच्चों का कौशल विकास शामिल नहीं है।’ एक और सराहनीय रिपोर्ट हर साल आती है। यह है ‘एनुअल स्टेटस आॅफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (एएसईआर), यानी शिक्षा की सालाना हालत की रिपोर्ट। इस कड़ी में हमारे सामने एक नई रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत में शिक्षा की हालत पर केंद्रित है, और यह रिपोर्ट 16 जनवरी 2018 को प्रकाशित हुई।

चिंताजनक तथ्य
एएसईआर या ‘असर’ की 2017 की रिपोर्ट एक बेहद चिंताजनक तथ्य की याद दिलाती है, जिससे स्कूल-शिक्षा क्षेत्र के सभी लोग अवगत हैं। पिछले बारह सालों में ‘असर’ के अध्ययनों ने लगातार यह रेखांकित किया है कि बहुत सारे बच्चों को पढ़ना तथा बेसिक अंकगणित सीखने में मदद करने की फौरन जरूरत है। दाखिले की तादाद बढ़ने के सिवा शायद ही कुछ बदला हो। शिक्षा अधिकार अधिनियम के कारण, स्कूल से बाहर के बच्चों की तादाद घट कर 3.1 फीसद ही रह गई है। पहले बहुत सारे बच्चे कक्षा पांच के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते थे। अब कक्षा पांच के बाद की नामांकन दर में काफी सुधार हुआ है, और कक्षा आठ में नामांकन पिछले दशक में दुगुना हो गया, 1.1 करोड़ से 2.2 करोड़। नामांकन की संख्या भले बढ़ी हो, पर उसके अनुपात में आधारभूत कौशलों से लैस विद्यार्थियों की संख्या घटी है:
* कक्षा आठ के विद्यार्थियों में से एक चौथाई कक्षा दो के स्तर की पाठ्यपुस्तक नहीं पढ़ सकते।
* कक्षा आठ के आधे विद्यार्थी साधारण गुणा-भाग नहीं कर सकते।
‘असर’ की 2017 की रिपोर्ट ग्रामीण भारत के चौदह से अठारह वर्ष के आयुवर्ग के बच्चों पर केंद्रित है। रिपोर्ट में इसकी वजह बताई गई है ‘अधिक से अधिक बच्चे आठ साल की प्राथमिक शिक्षा करीब चौदह साल की उम्र में पूरी कर रहे हैं। चार साल बाद ये बच्चे बालिग हो जाएंगे। तो इन चार वर्षों में ये बच्चे क्या करते हैं। क्या हम इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि वे ऐसी योग्यताएं और कौशल अर्जित कर रहे हैं जिससे वे बालिग होकर कुछ करने लायक बन सकेंगे?’
अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि इस सवाल का जवाब ‘ना’ है, कम से कम ‘अभी नहीं’।
वर्ष 2008-09 में, कक्षा पांच में 2.4 करोड़ बच्चे थे, लेकिन 2011-12 में केवल 1.9 करोड़ बच्चे कक्षा आठ में दाखिल हुए। जाहिर है, पचास लाख की कमी आई। जब ये बच्चे कक्षा बारह में पहुंचे, तब तक और सत्तर लाख बच्चे पढ़ाई छोड़ चुके थे, और 2015-16 में कक्षा बारह में दाखिले का आंकड़ा था सिर्फ 1.2 करोड़। मोटे अनुमान के मुताबिक, हर साल करीब 17 लाख बच्चों ने स्कूल छोड़ा। इसकी वजहें हैं शिक्षकों के पद खाली रहना, शिक्षकों का गैरहाजिर रहना, सरकारी स्कूलों में जवाबदेही की कमी, निजी स्कूलों की बाबत नियमन का अभाव और शिक्षा पर सरकार की तरफ से निहायत अपर्याप्त खर्च।

चौदह से अठारह का आयुवर्ग
चौदह से अठारह साल के बच्चे क्या कर रहे हैं? वे स्कूलों में दाखिल तो हैं, पर हर साल वे एक खासे अनुपात में स्कूल छोड़ देते हैं, उम्र के साथ यह संख्या बढ़ती जाती है। इस आयुवर्ग के तीस फीसद बच्चे अठारह साल की उम्र में पढ़ाई से नाता तोड़ लेते हैं। ‘असर’ के सर्वे में इस आयुवर्ग के जिन बच्चों से पूछा गया उनमें से एक चौथाई का कहना था कि उन्हें वित्तीय कारण से पढ़ाई छोड़नी पड़ी। अन्य चौंतीस फीसद ने पढ़ाई छोड़ने की वजह यह बताई कि इसमें उनका मन नहीं लग रहा था और चौदह फीसद ने कहा कि फेल हो जाने के बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दिया।
चौदह से अठारह साल के आयुवर्ग के अठहत्तर फीसद ग्रामीण युवा- चाहे वे स्कूल में पंजीकृत हों या नहीं- कुछ न कुछ खेती का काम करते हैं, या तो मजदूरी की खातिर या अपने खेत में। उनमें से शायद ही कोई कृषि विज्ञान या पशु चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करना चाहता है। स्नातक के सारे विषयों के विद्यार्थियों में कृषि विज्ञान और पशु चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने वालों का अनुपात बमुश्किल आधा फीसद है।
चौदह से अठारह साल के बच्चों की बाबत हम क्या कर रहे हैं? ‘असर’ के सर्वे ने पाया कि ‘इस बात के ज्यादा प्रमाण नहीं हैं कि बच्चे व्यावसायिक कौशल अर्जित कर रहे हैं।’ इसने पाया कि अप्रशिक्षित युवा कौशल विकास पाठ्यक्रमों की तरफ नहीं भाग रहे हैं, और न ही उद्योग, प्रशिक्षण केंद्रों पर उन्हें तलाश रहे हैं। ‘असर’ रिपोर्ट कहती है कि जब तक कृषि ग्रामीण युवाओं के लिए रोजगार का एक बड़ा स्रोत है, ‘कृषि अधिक शिक्षित और प्रशिक्षित श्रम-शक्ति का इस्तेमाल कर सकती है, इस बात को देखते हुए कि दुनिया के अग्रणी देशों के मुकाबले हमारी उत्पादकता बहुत कम है।’ लेकिन ऐसे आधारभूत कृषि पाठ्यक्रम नहीं हैं जो उन सामान्य स्नातक पाठ्यक्रमों का विकल्प बन सकें जिनसे कुछ हासिल होता नहीं है।

एक नाकाम व्यवस्था
हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था नाकाम है। अठारह साल की उम्र तक पहुंचने से पहले ही, और जिसे ‘स्कूली शिक्षा’ कहा जाता है उसे हासिल किए बिना ही, पचास फीसद बच्चे उम्र के विभिन्न पड़ाव पर पढ़ाई छोड़ देते हैं। उनमें से बहुतों के पास कोई भी बुनियादी कौशल नहीं होता, वे बस साक्षर हैं या संख्याएं पढ़ सकते हैं, वे कौशल विकास पाठ्यक्रमों में दाखिल नहीं हैं, मामूली कुशलता वाले कामों को छोड़ कर वे अन्य रोजगार के लायक नहीं हैं, और इसलिए वे खेती के काम और दूसरे दिहाड़ी के कामों पर निर्भर हैं। इसके साथ, हमारे बच्चों की सेहत की हालत देखें। पांच साल तक के प्रत्येक दो बच्चों में एक खून की कमी का शिकार है; प्रत्येक तीन में से एक अपेक्षित वजन से कम और कुपोषित है, और प्रत्येक पांच में से एक दुर्बल है। यह तमाम अध्ययनों से प्रमाणित हो चुका है कि शुरू के पांच साल किसी भी बच्चे के बाकी जीवन के शारीरिक और मानसिक विकास में निर्णायक कारक साबित होते हैं।
दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना या एटमी हथियार होना या अंतरिक्ष में उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किसी देश को महान शक्ति नहीं बनाता- महान जनशक्ति भी नहीं- अगर हमारे बच्चे बड़े होकर महान अर्थव्यवस्था या महान राष्ट्र बनाने लायक न हो सकें।नेल्सन मंडेला के इन शब्दों पर मनन कीजिए: ‘शिक्षा वह सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं।’

 

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