अंधविश्वास का पर्दा

दीपांकर पटेल

हाल ही में एक शोध के सिलसिले में मेरी एक अध्यापक से बात हुई, जो एक माध्यमिक विद्यालय में विज्ञान पढ़ाते हैं। वे उन चुनौतियों की बात करने लगे जो माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों को विज्ञान पढ़ाने में सामने आती हैं। वे इस बात से काफी चिंतित थे कि उनके काफी प्रयासों के बावजूद बच्चों का भूत-प्रेत, अपशगुन और दूसरे अंधविश्वासों से भरोसा कम नहीं हो रहा। बल्कि शुरुआती कक्षाओं में विज्ञान पढ़ाने का मुख्य मकसद ही बच्चों में बुनियादी वैज्ञानिक समझ और तार्किकता विकसित करना होता है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 कहती है कि ऐसा पढ़ाया जाए जो बच्चों को अवलोकन और प्रयोग द्वारा सिद्धांतों के वैध-अवैध होने के बारे में बताए, जहां कोई भी सिद्धांत अंतिम सत्य नहीं होता, बल्कि अंतरिम सत्य होता है। वह बच्चों को वैज्ञानिक जानकारी की पुष्टिकरण और सृजन की ओर बढ़ाए जिससे उनकी स्वाभाविक जिज्ञासा और सृजनशीलता का पोषण हो सके। लेकिन क्या इस तरह पढ़ाना इतना आसान है?

दरअसल, हर समाज अपनी अच्छाइयों के साथ बुराइयां, संस्कारों के साथ कुरीतियां और तर्क के साथ अंधविश्वास अपनी अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करता है। पूर्वाग्रह और अंधविश्वास जैसी चीजें विज्ञान विषय की बुनियादी प्रकृति को गंभीर नुकसान पहुंचाती हैं। अंधविश्वासों की कोई तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती और ये परिवार और समाज में बिना किसी ठोस आधार के भी सर्वमान्य बने रहते हैं। शिक्षित और अशिक्षित दोनों तरह के परिवारों में अंधश्रद्धापूर्ण मान्यताएं पाई जाती हैं। इन मान्यताओं को बिना सवाल किए आत्मसात कर लेने की उम्मीद बच्चों से की जाती है। और अगर वे सवाल करते हैं तो दबाव बना कर समाज और परिवार उन्हें इन मान्यताओं और विश्वासों को मानने की तरफ धकेलते हैं। या फिर इन मामलों में बच्चों को निष्क्रिय रहने को मजबूर किया जाता है और कहा जाता है कि यह सब तुम बड़े होकर समझोगे। ऐसा भी होता है कि बच्चे अपने माता-पिता और परिवार की नकल करते हैं। ऐसे में बच्चे भी उस अंधविश्वास को अपना लेते हैं जो उनके माता-पिता मानते हैं।

ज्यादातर अखबार और टीवी चैनल भी अंधविश्वास से जुड़ी खबरों को सनसनीखेज बना कर पेश करते हैं। वे किसी भी अनसुलझे रहस्य को अलौकिक-पारलौकिक शक्ति का प्रताप घोषित करते रहते हैं और उनके विश्लेषण में तार्किकता का सर्वथा अभाव रहता है। बहुत से फिल्म निर्माता भी सामाजिक अंधविश्वासों का कारोबार करते हैं, जिन्हें देखने से बच्चों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जबकि इसी दौरान विज्ञान की कक्षाएं उनमें तर्कपूर्ण सवाल उठाने की प्रवृत्ति को धार देने की कोशिश कर रही होती हैं।

ऐसे में ज्यादातर विद्यार्थी इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि उन्हें परिवार और समाज से दुनिया समझने का जो नजरिया मिल रहा है उस पर विश्वास करें या चीजों को समझने के लिए अवलोकन आधारित तार्किक पद्धति का प्रयोग करें जो विज्ञान की कक्षाओं में सिखाया जाता है। ऐसे में बच्चे आस्था और तार्किकता से जूझते हुए मानसिक रूप से विचलित होते हैं, मनोवैज्ञानिक रूप से परेशान होते हैं। नतीजतन, उनकी या तो विज्ञान में अरुचि उत्पन्न हो जाती है या वे आस्थाओं और अंधविश्वासों से उलझते हुए चिड़चिड़े हो जाते हैं। आखिरकार विज्ञान का विषय दबाव में पढ़ते भी हैं तो उनकी वैज्ञानिकता खत्म हो जाती है। इन सबके बीच भी जो विद्यार्थी असाधारण रूप से तार्किक बने रहते हैं, उन्हें समाजिक अलगाव तक का सामना करना पड़ता है। इससे वैज्ञानिक और प्रगतिशील शिष्ट समाज के निर्माण की मानवीय जरूरत को गंभीर नुकसान होता है। लेकिन इन सबसे कैसे निपटा जा सकता है? शिक्षक की भूमिका इस दौरान सबसे महत्त्वपूर्ण और दिशा निर्धारित करने वाली होती है।

शिक्षाविद जॉन डिवी की मानें तो बच्चे सक्रिय भागीदारी से सीखते हैं। वे अंधविश्वास और झूठे कर्मकांड पर इसलिए भी भरोसा कायम कर लेते हैं कि समाज और परिवार के साथ वे इसमें सहभागी बन रहे होते हैं। इससे निपटने के लिए कक्षाओं को ‘करने के साथ सीखना’ के सिद्धांत को आत्मसात करना होगा। कक्षा और स्कूल में छोटी-छोटी गतिविधियों, अंधविश्वास पर चोट करने वाले नाटकों और अंधश्रद्धा से हुए नुकसान के अनुभव साझा करने वाले आयोजनों से इससे निपटने में मदद मिल सकती है। सिर्फ विज्ञान की कक्षा नहीं, बल्कि पूरे स्कूल का वातावरण वैज्ञानिक नजरिया और तर्क विकसित करने वाला होना चाहिए। आसपास के ऐसे उदाहरण अध्यापक को देने चाहिए जहां अंधविश्वास, झाड़-फूंक जैसी चीजों में पड़ने के कारण लोगों को जानमाल का नुकसान उठाना पड़ा हो। बच्चों के बुनियादी सवालों के जवाब आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों की मदद से देने चाहिए। ऐसे सवालों की व्याख्या के लिए मिथकीय संदर्भों का सहारा लेना भ्रमित धारणा को जन्म दे सकता है।

बच्चों को सरलता से विज्ञान सिखाने के लिए दशकों से काम करने वाले मशहूर वैज्ञानिक जयंत वी नार्लीकर कहते हैं कि भारत वैज्ञानिक विकास और पारंपरिक अंधविश्वासों का एक अजीब मिश्रण है। अंधविश्वास गहराई से जड़ें जमाए है और इसे रातोंरात समाप्त नहीं किया जा सकता है। इसे तानाशाही से नहीं हटाया जा सकता, लेकिन तर्कसंगत युक्तियों से इसका मुकाबला किया जा सकता है।

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