अनिवार्य उपस्थिति
शिक्षक का काम
बच्चों को विद्यालय से जोड़े रखने में मध्याह्न भोजन योजना बहुत उपयोगी रही है लेकिन इसके क्रियान्वयन में थोड़ी तब्दीली की आवश्यकता है। एक शिक्षक का काम पढ़ाना है। वह स्कूल में खाना बनवाने में ही व्यस्त रहे यह शिक्षा व्यवस्था के लिए खेदजनक है। शिक्षक की शैक्षिक योग्यता का उपयोग खाना बनवाने और खिलाने में क्यों हो? समाज के अन्य लोगों को मध्याह्न भोजन योजना से जोड़ने पर उन्हें रोजगार मिलने के साथ-साथ समाज का विद्यालय के प्रति लगाव बढ़ेगा और सकारात्मक माहौल बनेगा। वैसे भी मध्याह्न भोजन योजना की निगरानी के लिए कई स्तरों पर अधिकारी तैनात किए ही जाते हैं।
’मिथिलेश कुमार, भागलपुर
अनिवार्य उपस्थिति
कुछ दिन पहले तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश के सभी उच्च शिक्षण संस्थाओं से अलहदा हुआ करता था। यह भारत का एकमात्र ऐसा संस्थान रहा है जहां हाजिरी नहीं लगती थी, यहां तक कि कोई उपस्थिति पंजी रखी ही नहीं जाती थी। उपकुलपति के ताजा निर्णय के बाद एक झटके में उपस्थिति को अनिवार्य कर दिया गया है। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। अगर सकारात्मक पहलू की बात करें तब पाएंगे कि यह शोध आधारी विश्वविद्यालय रहा है मगर बेहद सस्ते हॉस्टल और शिक्षा के कारण विगत कुछ वर्षों में यह सिर्फ रहने-खाने की जगह बनता जा रहा था। लोग यहां आकर शोध और अकादमिक पढ़ाई को छोड़ किन्हीं अन्य उद्देश्यों की पूर्ति में लग जाते हैं। इस प्रकार इस संस्थान की स्थापना का मकसद खत्म होता दिखने लगता है। नए निर्णय के बाद जेएनयू की अकादमिक और शोध क्षमता को बचाया जा सकेगा।
दूसरी ओर अगर नकारात्मक पहलू की बात करें तो पाएंगे कि ढेर सारी आजादी देकर धीरे-धीरे एक विद्याकुल को विकसित किया गया था जिसने बहुत सारी छूटों का लाभ उठा कर खुद को बेहतर बनाया था और कालांतर में एक परिपक्व शैक्षणिक संस्कृति का निर्माण कर लिया था। अनिवार्य उपस्थिति लागू हो जाने के बाद ऐसा लगता है जैसे जवान हो रहे बच्चे को कनैठी लगा दी गई हो। आज जबकि उचित व्यवस्था के अभाव में अनेक योग्य लोग पीएचडी करके भी बेरोजगार हैं ऐसे में सब शोध और अकादमिक पढ़ाई के भरोसे नहीं रह सकते। रोजी-रोटी के लिए कुछ और भी सोचना ही पड़ता है। सरकार उच्च शिक्षा को बढ़ावा दे, सशक्त बनाए और इन व्यवस्थाओं से निकल रहे विद्वानों का उचित समायोजन सुनिश्चित करे तभी जेएनयू जैसे किसी संस्थान में अकादमिक निष्ठा बचेगी। नहीं तो अनिवार्य उपस्थिति एक खोखला आदर्श होकर रह जाएगी।
’अंकित दूबे, जेएनयू, नई दिल्ली