राजनीति- प्राथमिक शिक्षा की प्रासंगिकता
ग्रामीण भारत के आधे बच्चे सामान्य से तीन कक्षा नीचे के स्तर पर हैं। इन परिणामों के कारणों पर अगर विचार किया जाए तो दो तथ्य उजागर होते हैं। पहला, शिक्षा की गुणवत्ता में कमी और दूसरा, बच्चों में फेल न होने के डर से मुक्ति के भाव के चलते शिक्षा के प्रति गंभीरता का अभाव। एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि शिक्षक भी इस बोध के चलते कि बच्चों का दूसरी कक्षा के लिए पास होना तय है, अपने दायित्वों और कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं।
देश के तेईस राज्यों ने स्कूलों में पांचवीं और आठवीं कक्षा में छात्रों को अनुत्तीर्ण नहीं करने की नीति में संशोधन करने का समर्थन किया है। इनमें से आठ राज्यों ने इस नीति को पूरी तरह वापस लेने के पक्ष में राय जाहिर की है। वहीं आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और तेलंगाना ने शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम-2009 के तहत अनुत्तीर्ण नहीं करने की नीति को बनाए रखने की पैरवी की है। स्कूलों में अनुत्तीर्ण नहीं करने की नीति के विषय पर विचार के लिए 26 अक्तूबर, 2015 को राजस्थान के शिक्षा मंत्री के नेतृत्व में एक उपसमिति बनाई गई थी। इस समिति ने छह से चौदह साल के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून के तहत इस नीति से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार किया था। अब शिक्षा का अधिकार कानून-2009 के प्रावधानों में संशोधन करने का फैसला किया गया है, ताकि पांचवां और आठवीं कक्षा में नियमित परीक्षा आयोजित की जा सके। प्रस्तावित संशोधन के अनुसार अगर कोई बच्चा इस परीक्षा में फेल हो जाता है, तब उसे परिणाम घोषित होने के दो महीने के भीतर दोबारा परीक्षा देने का मौका मिलेगा। अगर छात्र दूसरे अवसर में भी फेल हो जाता है तब सरकार स्कूल को पांचवीं या आठवीं कक्षा या दोनों कक्षाओं में ऐसे छात्रों को रोकने की अनुमति दे सकती है। लेकिन किसी भी छात्र को स्कूल से निकाला नहीं जा सकेगा।
आठवीं तक बच्चों को फेल न करने की नीति का विश्लेषण सार्वजनिक मंच पर करने की जरूरत है, क्योंकि इसका संबंध प्रत्यक्ष तौर पर देश के भावी कर्णधारों से जुड़ा है। 1986 की नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा में बच्चों को फेल न करने की नीति के समावेश का कारण, बच्चों के असमय स्कूल छोड़ देने की प्रवृत्ति पर नियंत्रण करना था। आठवीं तक फेल न करने की नीति पर पहली बार प्रश्न 2012 में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति में उठा था। तब दिल्ली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और हरियाणा जैसे राज्यों ने इस नीति पर पुनर्विचार की मांग की थी। इस समिति की सिफारिश के बाद 25 दिसंबर, 2016 को विधि मंत्रालय ने भी मंजूरी दे दी। यहां कई ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर खोजना जरूरी है। पहला यह कि क्या आठवीं तक पास कर देने भर से बच्चों का शिक्षा का अधिकार संरक्षित रह सकता है? दूसरा, क्या शिक्षा के मायने हमारे लिए वैश्विक स्तर पर, प्राथमिक शिक्षा में अपने नामांकन स्तर को बढ़ाने मात्र तक सीमित हैं या फिर शिक्षा का उद्देश्य इससे इतर कुछ और भी है?
दरअसल शिक्षा, अक्षर ज्ञान या डिग्री पाना ही नहीं है। यह सामाजिक प्रगति और सुधार की मूलभूत प्रक्रिया है। यह दो तरह से कार्य करती है। पहला, मूल्यों की ओर बच्चों का मार्गदर्शन करके और दूसरा, बच्चों में व्यक्तिगत रूप से बौद्धिक विकास से सहायता करके। स्पष्ट है कि अगर इस कसौटी पर प्राथमिक शिक्षा को आंका जाए तो परिणाम ‘शून्यता’ की ओर इशारे कर रहे हैं। आठवीं तक फेल न करने के पीछे स्पष्ट कारण थे- बच्चों के शिक्षा के अधिकार को संरक्षित करना, अनुत्तीर्ण होने के डर से उत्पन्न तनाव से मुक्ति दिलाना और इन सबसे ऊपर बच्चों के स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति को नियंत्रित करना। परंतु क्या इन प्राथमिकताओं से हम बच्चों का भविष्य संरक्षित कर पाने में सफल रहे? शायद नहीं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो हरियाणा के पच्चीस हजार से अधिक अभिभावक 2015 में राज्य शिक्षा विभाग से अनुरोध नहीं करते कि उनके बच्चों की योग्यता का सही मूल्यांकन हो और अगर वे अयोग्य हैं तो उनको प्राथमिक कक्षाओं में पास नहीं किया जाए। हमें यह स्वीकारना होगा कि शिक्षा विभाग और सुब्रमण्यम समिति की ही नहीं, अपितु अभिभावकों की चिंता का विषय बच्चों में शिक्षा का गिरता स्तर है।
गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ के एक देशव्यापी सर्वेक्षण में पाया गया था कि पचास फीसद बच्चे ऐसे हैं जो पांचवीं कक्षा तक तो पहुंच गए, लेकिन किताब दूसरी कक्षा की भी नहीं पढ़ सकते। रिपोर्ट से यह निष्कर्ष निकला कि ग्रामीण भारत के आधे बच्चे सामान्य से तीन कक्षा नीचे के स्तर पर हैं। इन परिणामों के कारणों पर अगर विचार किया जाए तो दो तथ्य उजागर होते हैं। पहला, शिक्षा की गुणवत्ता में कमी और दूसरा, बच्चों में फेल न होने के डर से मुक्ति के भाव के चलते शिक्षा के प्रति गंभीरता का अभाव। एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि शिक्षक भी इस बोध के चलते कि बच्चों का दूसरी कक्षा के लिए पास होना तय है, अपने दायित्वों और कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि स्कूल छोड़ने का कारण पास या फेल होने से कहीं अधिक आर्थिक विवशताएं और शिक्षा के प्रति झुकाव का अभाव है। अगर इन दोनों ही स्तरों पर कार्य किया जाए तो देश में प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर बदल सकती है।
क्या हम सभी यह स्वीकार नहीं करते कि जिस प्रकार के पाठ्यक्रम बच्चों के लिए प्राथमिक स्तर पर रखे गए हैं, वे न तो दिलचस्प हैं न ही उपयोगी। बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने के मुद्दे पर भी शिक्षाविद चिंतित दिखाई देते हैं। पर सच तो यह है कि जो बच्चे कागजों में नामांकित हैं वे भी कक्षाओं से गायब रहते हैं। इसके पीछे कारण उपयोगिता खोती शिक्षा है। भारत की स्कूली शिक्षा को किताबों के बोझ से मुक्त होने की जरूरत है। सबसे पहला और आवश्यक कदम ‘ज्ञान’ देने के लिए रटने की परंपरा का त्याग होना चाहिए। शिक्षा देने के साधन इतने मनोरंजनात्मक होने चाहिए कि बच्चे के भीतर अधिक से अधिक जानने की जिज्ञासा पैदा कर सकें। इस संदर्भ में हम फिनलैंड का उदाहरण ले सकते हैं, जहां अंग्रेजी भाषा सिखाने के लिए बच्चों को अंग्रेजी भाषा के गाने सिखाए जाते हैं। संगीत में रच-बस कर बच्चे शब्दों के अर्थ, उच्चारण और उनका प्रयोग करना सीख जाते हैं। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद वोकेशनल स्कूल का विकल्प होता है जहां वे सारे कोर्स होते हैं जो बच्चों को आत्मनिर्भर बनाते हैं। हेयर डिजाइनर, कैफेटेरिया सर्विसेज और मैसन (राजमिस्त्री) जैसे विषयों में बच्चे दो साल का कोर्स करते हैं। इन वैकल्पिक विषयों के प्रति झुकाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा के बाद 40 फीसद लड़कियां और 58 फीसद लड़के इन वोकेशनल स्कूल में दाखिला लेते हैं। शिक्षा के चाहे हम किसी भी पहलू की बात करें, उसका मुख्य उद्देश्य आत्मविश्वास को जगाना और जीविकोपार्जन के लिए सक्षम बनाना है। इन दोनों ही दृष्टि में हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था नाकाम रही है।
एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि आर्थिक विवशताओं के चलते छठी-सातवीं तक आते-आते बच्चे पारिवारिक उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए स्कूल छोड़ देते हैं। क्या इन परिस्थितियों में यह बेहतर नहीं होगा कि व्यावसायिक या कौशल प्रशिक्षण को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। ऐसे कार्यक्रम बच्चों को शिक्षित करने के साथ-साथ, उन्हें आर्थिक निर्भरता की ओर भी ले जाएंगे। हो सकता है कि इस संदर्भ में तर्क यह दिया जाए कि अल्पायु में बच्चों को किसी रोजगार विशेष की ओर प्रवृत्त करना गलत होगा। यह पक्ष पूर्णतया अतर्कसंगत नहीं है, परंतु जब आर्थिक स्वावलंबन एवं जीविकोपार्जन का प्रश्न हो तो भारतीय प्ररिपे्रक्ष्य, विशेषकर ग्रामीण और निर्धन परिवारों के लिए किताबी शिक्षा दोयम हो जाती है। हर देश की अपनी प्राथमिकताएं और आवश्यकताएं होती हैं, उसी के अनुरूप वहां की शिक्षण व्यवस्था का ढांचा होना चाहिए।