125वीं बरसी: शिकागो में विवेकाकानंद ने कहा था- हम सारे धर्मों को सत्य मानने वाले देश से हैं, पढ़िए उनका भाषण
अमेरिका में 1893 में हुई विश्व धर्म संसद से पहले स्वामी विवेकानंद एक लगभग अंजान नाम थे। 11 सितंबर 1893 को विश्व धर्म संसद में दिया उनके भाषण ने रातों-रात उन्हें अमेरिकी मीडिया का चहेता बना दिया। 30 साल के इस भारतीय संन्यासी ने अपनी वाग्मिता और धर्म चिंतन से हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर पूरी दुनिया अपना मुरीद बना लिया। अमेरिका जाने से पहले विवेकानंद के पास ऊनी कपड़े बनवाने, वहां रहने खाने-पीने तक के पैसे नहीं थे। 12 जनवरी 1863 में तत्कालीन कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बनने के बाद विवेकानंद बन गये। आज दुनिया उन्हें इसी रूप में जानती है। चार जुलाई 1902 को महज 39 वर्ष की अल्पायु में समाधि में लीन हो गये थे। नीचे पढ़िए विवेकानंद का विश्व धर्म संसद के पहले दिन दिया गया भाषण।
स्वामी विवेकानंद का विश्व धर्म सम्मेलन में 11 सितंबर 1893 को दिया भाषण-
मेरे अमेरीकी भाइयो और बहनों !
आपने जिस हर्ष-उल्लास और स्नेह के साथ हमारा यहाँ स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के लिए मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया हैं। दुनिया में साधू-संतो की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, मैं आपको सभी धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ और सभी जाति-सम्प्रदायों के लाखो-करोड़ो हिन्दुओं की ओर से भी आपको धन्यवाद देता हूँ। मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन महान वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने इस बात का उल्लेख किया और आपको यह बतलाया कि सहिष्णुता का विचार पूरे विश्व में पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं ऐसे धर्म से आता हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सभी को स्वीकार करने की शिक्षा दी है।
हम लोग सभी धर्मों के प्रति ही केवल सहनशीलता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि सारे धर्मों को सत्य मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने पर गर्व है जिसने इस धरती के सभी धर्मों और देशों के पीड़ितों और शरणार्थियों को शरण दी है. मुझे यह बताते हुए भी गर्व होता हैं कि हमने अपने ह्रदय में उन यहूदियों के शुद्ध स्मृतियां को स्थान दिया था जिन्होंने भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति ने तोड़-तोड़ खंडहर में मिला दिया था।
मुझे गर्व है की में एक ऐसे धर्म से हूँ जिसने महान पारसी देश के अवशिष्ट अंश को शरण दी और अभी भी उसको बढ़ावा दे रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक श्लोक की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया है और अभी भी कर रहा हूँ और जिसे प्रतिदिन लाखों-करोड़ो लोगो द्वारा दोहराया जाता है।
“रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव”।।
(जैसे विभिन्न नदियाँ अलग-अलग स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं ठीक उसी प्रकार से अलग-अलग रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में भगवान में ही आकर मिल जाते हैं।)
यह सभा जो अभी तक की सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अदभुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है।
“ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः”।।
साम्प्रदायिकता, असहिष्णुता और इसकी भयावह संतान कट्टरपंथ इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे इस धरती को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के खून से नहलाती रही हैं और कई सभ्यताओं का नाश करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की स्थिति से कहीं अधिक विकसित हो गया होता पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से यह उम्मीद करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होने वाले सभी अत्याचारों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता की मृत्यु करने वाला साबित होगा।