अपने ही आंगन में पराए
रोहिंग्या मुसलिमों की दशा एक बार फिर दुनिया भर में चर्चा का विषय है। रोहिंग्या लोग बरसों से म्यांमा की सेना के अत्याचारों के शिकार रहे हैं। म्यांमा सेना ने सैकड़ों रोहिंग्या मुस्लिमों को मौत के घाट उतार दिया तो भारी संख्या में इस समुदाय के लोग म्यांमा छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए बांग्लादेश और थाईलैंड में पनाह मांगने को मजबूर हो रहे हैं। ये लोग शरणार्थी शिविरों में नारकीय जिंदगी जीने को विवश हैं। म्यांमा सरकार इन्हें अपना नागरिक नहीं मानती है और समय-समय पर इनका दमन करती रहती है। आखिर रोहिंग्या मुस्लिम हैं कौन? ये मुख्य रूप से म्यांमा रखाइन प्रांत में बसने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं जो सदियों से वहां रहते आ रहे हैं। लेकिन वहां की सैन्य सरकार ने 1982 में अपनी नीतियों से इन्हें देशविहीन बना दिया। दरअसल, म्यांमा मे रोहिंग्या मुस्लिमों को नागरिकता से वंचित कर रखा है। इसके फलस्वरूप ये वहां बुनियादी सुविधाओं, जैसे शिक्षा, सरकारी नौकरी आदि से वंचित हैं। रोहिंग्या मुस्लिमों की पृष्ठभूमि को समझने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटने की आवश्यकता है। भारतीय उपमहाद्वीप से बर्मा में इनका प्रवास सदियों पहले हुआ जब बौद्ध, इस्लाम और हिंदू धर्म का प्रसार इस क्षेत्र में हुआ। बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल) का रखाइन प्रांत (पूर्व अराकान) से सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध है। कम से कम पंद्रहवीं शताब्दी से अराकान में बंगाली बोलने वाले लोगों के बसने की जानकारी मिलती है, जब इस क्षेत्र में मराउक यू राज्य का शासन था। मराउक यू के राज्य की भौगोलिक स्थिति को देखा जाए तो वह बंगाल की खाड़ी के पूर्वी तट के निकट था, जहां उसने बांग्लादेश के कुछ हिस्सों और बर्मा के अराकान क्षेत्र पर 1429 से 1785 ईस्वी तक शासन किया।
सत्रहवीं शताब्दी में अराकान हमलावर दासों को ले आए। उनमें से एक उल्लेखनीय शाही दास अलेओल थे जो अराकान के दरबार में प्रसिद्ध कवि थे। दास बौद्ध शासकों के यहां विभिन्न कामों में कार्यरत रहे, जैसे वाणिज्य, कृषि, राजा की सेना आदि। लेकिन रोहिंग्या लोगों की समस्या तब बढ़ गई जब 1785 में बर्मा के अराकान को कोनबंग राजवंश ने जीत लिया। इसके बाद रखाइन से लगभग पैंतीस हजार रोहिंग्या अपने पड़ोसी चिटगांव क्षेत्र (ब्रिटिश बंगाल का हिस्सा) में भाग आए ताकि बर्मा की बमर जैसी प्रभावी जाति के उत्पीड़न से बचा जा सके। हजारों की संख्या में रखाइन में रह रहे लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा मध्य बर्मा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र से इन्हें निर्वासित कर दिया। चूंकि उस समय अंग्रेज अपने उपनिवेश का विस्तार कर रहे थे, उसी क्रम में 1824-1826 तक आंग्ल-बर्मा युद्ध हुआ। इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए, जिसके परिणामस्वरूप बर्मा का अराकान क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन आ गया।
अंग्रेजों ने बंगाल के निवासियों को प्रोत्साहित किया कि वे लोग अराकान की उपजाऊ घाटी में बस जाएं। वैसे भी ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल प्रेसीडेंसी का विस्तार अराकान तक था। उस समय बंगाल और अराकान के मध्य कोई अंतरराष्ट्रीय सीमा नहीं थी और न ही इन क्षेत्रों में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने पर पाबंदी थी। इसलिए उन्नीसवीं के प्रारंभ में हजारों की संख्या में बंगाली चिटगांव क्षेत्र से अराकान (बर्मा) में काम के अवसरों की तलाश में बस गए। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत से बर्मा में अधिक पलायन हुआ, क्योंकि बर्मा 1937 तक ब्रिटिश भारत का हिस्सा रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1942 में ब्रिटिश सशस्त्र बल रोहिंग्या रंगरूटों और जापान समर्थक रखाइन के बीच सांप्रदायिक हिंसा में अराकान में नरसंहार हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी के रिकॉर्ड में रोहिंग्या का नाम रूइंगा दर्ज है।1948 में बर्मा के स्वतंत्र होने के बाद रोहिंग्या नेताओं को बर्मा सरकार और संसद में कई महत्त्वपूर्ण पद दिए गए। वैसे तो बर्मा एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्वतंत्र हुआ था, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के कारण 1962 में जनरल ने विन के नेतृत्व में हुए तख्तापलट से बर्मा सैनिक शासन की गिरफ्त में आ गया। इसी के बाद रोहिंग्या मुसलमानों के दुुर्दिन शुरू हो गए। सैन्य शासकों ने रोहिंग्या समुदाय को कुचलने के लिए नाटकीय ढंग से प्रावधानों में बदलाव किए। नेशनल रजिस्ट्रेशन कार्ड की प्राप्ति सभी नागरिकों के लिए आवश्यक थी, पर रोहिंग्या लोगों को केवल विदेशी पहचान पत्र दिए गए. ताकि इन लोगों के लिए नौकरियों और शिक्षा के अवसरों को सीमित किया जा सके। रही-सही कसर सैन्य शासकों ने 1982 में नया नागरिकता कानून बना कर पूरी कर दी।
म्यांमा की सैन्य सरकार ने 1982 के नागरिकता कानून के अंतर्गत रोहिंग्या को अपना नागरिक माना ही नहीं। फिर इनके सारे नागरिक अधिकार छीन लिये गए। इन लोगों के शिक्ष हासिल करने, यात्रा करने, अपने धर्म का अनुसरण करने और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने पर लगातार पाबंदी लगाई गई है। इससे ये लोग बंधुआ मजदूरों की भांति जीवन जीने को विवश हैं। म्यांमा में लंबे समय तक सैन्य शासन (जुंटा) रहा है। 2015 में लोकतंत्र की बहाली की खातिर चुनाव हुए जिनमें आंग सान सू ची की पार्टी विजयी रही। सू ची को मानवाधिकारों के लिए 1991 में शांति के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था।प्रश्न उठता है कि वर्तमान में म्यांमा में एक लोकतांत्रिक सरकार है, फिर रोहिंग्या मुस्लिमों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? इसके पीछे तीन कारण नजर आते हैं। भले ही म्यांमा में 2015 में लोकतंत्र की बहाली के लिए चुनाव कराने की इजाजत लंबे अरसे से सत्ता पर काबिज सैन्य सरकार ने दे दी थी, लेकिन सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए 2008 में सेना के जनरलों (हुक्मरानों) ने संविधान का जो मसविदा तैयार किया उसमें स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि म्यांमा के सभी सुरक्षा बल सेना के नियंत्रण में रहेंगे। अर्थात यदि म्यांमा में आंतरिक संकट की स्थिति उत्पन्न होती है तो सेना को निर्णायक अधिकार लेने की शक्ति है, न कि पुलिस को। ऐसे में, रखाइन में इन दिनों उत्पन्न संकट का एक पहलू यह भी है कि म्यांमा की लोकतांत्रिक सरकार की हैसियत तो सेना के बाद ही आती है।
मार्च 2016 में म्यांमा में लोकतांत्रिक सरकार गठित हुई तो सू ची ने सेना के साथ सत्ता को साझा करने की बात कही थी, जिसका अर्थ यह था कि सुरक्षा से जुड़े सभी मंत्रालयों पर सेना का नियंत्रण होगा, अर्थात म्यांमा की सेना के जनरल गृह, सीमा और रक्षा मामलों से जुड़े मंत्रालयों की बागडोर संभालेंगे। इससे स्पष्ट है कि म्यांमा में सेना अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में भागीदार बनी हुई है।जहां तक रखाइन की बात है, सेना ने 4 सितंबर को इसे सैन्य कार्रवाई क्षेत्र घोषित कर दिया है ताकि वह यहां बिना किसी दखल के अपनी मनमानी कर सके। म्यांमा एक बौद्ध-बहुल देश है जहां नब्बे फीसद बौद्ध आबादी है। ऐसे में यदि सू ची रोहिंग्या का समर्थन करती हैं तो उन्हें अपना जनाधार खिसकने का डर होगा। सू ची ने अप्रैल में सेना का समर्थन करते हुए कहा था कि रखाइन में किसी प्रकार की नस्ली हिंसा नहीं हो रही है।
वर्तमान में विश्व के समक्ष प्रवासी समस्या भी एक गंभीर मुद्दा है। म्यांमा की लोकतांत्रिक सरकार को रोहिंग्या समस्या का शांतिपूर्ण और स्थायी समाधान निकालना चाहिए। यह मानवीय तकाजा तो है ही, दुनिया की निगाह में अपनी साख बचाने के लिए भी यह जरूरी है।