सियासी हवा का रुख भांप नाव बदलने के ‘नरेश’ बने अग्रवाल,नहीं छोड़ी कोई बड़ी पार्टी

डूबते सूरज को अलविदा कहना और उगते सूरज को सलाम करना ही उनकी सियासत का फलसफा है। जो पार्टी मजबूत दिखती है सारे गिले-शिकवे भुला कर उसी में चले जाते है। बार-बार दल-बदल के सवालों पर खुद को मौसम विज्ञानी भी बता चुके हैं। शायद यह उनका मौसम विज्ञान ही है, जिसकी बदौलत वे हवा का रुख भांपने में देरी नहीं करते। नरेश की चार दशक की सियासत इस बात की गवाह है कि कभी उन्होंने डूबती नाव की सवारी  नही की। कांग्रेस डूबने लगी तो सपा में चले गए, सपा की सरकार जाती दिखी तो बसपा में चले गए।  सियासत में जिस तरह मौसम की तरह उनके बदलने का मिजाज है, उससे सियासी मौसम विज्ञानी होने का दावा सही भी साबित होता है। बीजेपी में आने के बाद अब नरेश अग्रवाल उन बिरले नेताओं में शुमार हो गए हैं, जिन्होंने घाट-घाट का पानी पीया है। देश की कोई बड़ी पार्टी नहीं छूटी, जिसकी नाव में नरेश नहीं सवार हुए। जब भी जो भी नाव डूबती दिखाई दी तो उसे छोड़कर दूसरी नाव की सवारी में देर नहीं की। बदले में हर बार नरेश अग्रवाल की झोली में सांसदी और विधायकी का टिकट गिरता रहा।

गिरने से बचाई थी कल्याण सरकारः हरदोई में नरेश अग्रवाल विरासत की सियासत की देन हैं। इनके पिता श्रीश अग्रवाल हरदोई के जिला पंचायत अध्यक्ष और विधायक रहे। अपने जमाने में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार थे। लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी करने के बाद पहली बार नरेश 1980 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। फिर 89 से 91, 91-92 और 93-95 के बीच विधायक रहे। 1996 में कांग्रेस के टिकट पर छठीं बार विधायक बने। जब बसपा ने समर्थन वापस ले लिया था और कल्याण सिंह की भाजपा सरकार पर संकट मंडरा रहा था, तब फिर सियासी हवा भांपने का मौसम विज्ञान काम आया। नरेश अग्रवाल डेढ़ दर्जन विधायकों के साथ कांग्रेस पार्टी तोड़ दिए और लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी का गठन किया। बदले में उन्हें कल्याण सरकार में ऊर्जा मंत्री का पद मिला।

राजनाथ ने निकाला तो सपा बनी सहाराः 1997 से 2001 के बीच कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह की बीजेपी सरकार में नरेश अग्रवाल को मंत्री बनने का मौका मिला। मगर, कई बार नरेश अग्रवाल दबाव की राजनीति करने की कोशिश करते रहे। तंग आकर राजनाथ सिंह ने कैबिनेट से चलता कर दिया। इसके बाद फिर नरेश अग्रवाल को समाजवादी पार्टी में दम नजर आया और मुलायम सिंह के साथ हो लिए। 2003 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह यादव ने उन्हें पर्यटन मंत्री बनाया।

साइकिल पंचर देख, हाथी संग हो लिएः समाजवादी पार्टी में पांच साल की राजनीति करते नरेश अग्रवाल को लगा कि अब बसपा के दिन आने वाले है। बस फिर क्या था कि 2008 में बेटे नितिन के साथ नरेश बसपा मुखिया मायावती के साथ हो लिए। 2008 में उन्होंने विधानसभा सीट से इस्तीफा देकर तब 27 साल के बेटे को बसपा के टिकट पर राजनीति में पदार्पण कराने में सफल रहे। इस बीच 2010 में बसपा ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया।
हाथी को डूबता देख, फिर साइकिल की सवारीः नरेश अग्रवाल को लगा कि 2007-12 के बाद अब मायावती की सरकार दोबारा नहीं आने वाली है। उन्होंने 2012 में विधानसभा चुनाव होने के साल भर पहले ही समाजवादी पार्टी से रिश्ता साध लिया। सपा की सरकार बनने वाली है यह बात उन्होंने अपने ‘सियासी मौसम विज्ञान’ की जानकारी का इस्तेमाल कर पता कर लिया। बेटे नितिन के साथ झट से समाजवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लिए। आम के आम गुंठलियों के दाम वाला लाभ हुआ। एक तो बेटे को विधायकी के बाद राज्यमंत्री का पद मिला, दूसरे खुद को सपा के टिकट पर राज्यसभा जाने का मौका।
अब सबसे ताकतवर पार्टी के पाले मेंः समाजवादी पार्टी से यूपी के रास्ते राज्यसभा जाने की गुंजाइश नहीं बची तो फिर नरेश अग्रवाल ने दांव खेल दिया। अब देश की सबसे मजबूत पार्टी में एंट्री करने में सफल रहे। माना जा रहा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेश अग्रवाल बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं। नरेश अग्रवाल के करीबी कहते हैं कि भविष्य में किसके दिन आने वाले हैं, यह बखूबी भांप जाते हैं। कब किस नेता के साथ खड़े दिख जाएं,कोई नहीं अंदाजा लगा सकता। हालांकि नरेश हर बार जब राजनीतिक पता बदलने की तैयारी में होते हैं तो अपने कुछ बयानों और मेल-मुलाकातों से इसका संकेत जरूर देते हैं।

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