एससी-एसटी एक्ट में अग्रिम जमानत का भी प्रावधान नहीं, जाने क्यों हुआ विवाद?

अनुसूचित जाति और जनजाति पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस पर राजनीति भी शुरू हो गई है। विभिन्न संगठनों ने सोमवार (2 अप्रैल) को भारत बंद का आह्वान किया। इस दौरान देश के अनेक हिस्सों में व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई। दरअसल, शीर्ष अदालत के फैसले के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी/एसटी) समुदाय से आने वाले लोगों से जुड़े मामलों में सरकारी अधिकारियों को गिरफ्तार करने से पहले सक्षम अधिकारी की मंजूरी जरूरी हो गई है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर कई हलकों में चिंता जताई गई थी। विवाद बढ़ने पर नरेंद्र मोदी सरकार ने फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर कर दी है।

क्या हैं प्रावधान: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून में बेहद सख्त प्रावधान किए गए हैं। इस कानून में पीड़ित पक्ष द्वारा शिकायत देते ही कार्रवाई और गिरफ्तारी का प्रावधान है। साथ ही इस कानून के तहत दाखिल शिकायत में अग्रिम जमानत भी नहीं दी जा सकती है। वर्ष 1989 में दलितों और आदिवासियों को अत्याचार से बचाने के लिए इस कानून को अमल में लाया गया था। बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता या छुआछूत निषेध) के तहत एससी/एसटी एक्ट को पारित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसमें व्यापक तौर पर बदलाव आ गए हैं।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला: सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एससी/एसटी कानून के दुरुपयोग पर रोक को लेकर अहम व्यवस्था दी है। कोर्ट के निर्णय के अनुसार, दलितों और आदिवासियों की शिकायत पर कार्रवाई से पहले अब छानबीन करना अनिवार्य है। जांच की प्रक्रिया को सात दिनों में पूरा करना होगा इसके बाद ही मामला दर्ज किया जा सकेगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ऐसे प्रत्येक मामले में गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के मामले में उनके उच्चाधिकारियों की लिखित मंजूरी के बाद ही आरोपी की गिरफ्तारी की जा सकेगी। आमलोगों के शामिल होने की स्थिति में एसएसपी (वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक) रैंक के अधिकारी की अनुमति के बाद ही गिरफ्तारी हो सकेगी। शीर्ष अदालत ने साथ ही यह भी स्पष्ट किया था कि एससी/एसटी कानून में अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं है, इसके बावजूद इसमें अपवाद हो सकता है।

क्या था मामला: एससी/एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र से जुड़े एक मामले में फैसला दिया था। शिक्षा विभाग के एक अधिकारी और फार्मेसी कॉलेज के दो उच्चाधिकारियों ने एक जूनियर अधिकारी की गोपनीय रिपोर्ट में प्रतिकूल टिप्पणी की थी। बाद में जाति के आधार पर भेदभाव करने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में आपराधिक मुकदमा चल रहा था। बांबे हाई कोर्ट ने 5 मई, 2017 को शिकायत को रद्द करने से इनकार कर दिया था। बचाव पक्ष ने दलील दी थी कि वे सिर्फ अपने आधिकारिक दायित्व का निर्वाह कर रहे थे। हालांकि, कोर्ट ने उनके दावों को खारिज कर दिया था। हाई कोर्ट ने उनकी अर्जी को खारिज करते हुए कहा था कि इस पर सुनवाई से कमजोर और दबे-कुचले तबकों के बीच गलत संदेश जाएगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई थी।

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