दिल्ली का विकास नहीं करना चाहती केजरीवाल सरकार: शीला दीक्षित
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार जैसे अधिकार दिए जाने की दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की मांग पर पलटवार करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा है कि उन्हें न तो दिल्ली के लिए काम करना आता है और न ही वे काम करना चाहते हैं। लगातार 15 साल तक मुख्यमंत्री रहीं दीक्षित ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री को यह तो पता ही होगा कि यह केंद्र शासित प्रदेश है। हमने सीमित अधिकारों के साथ ही दिल्ली के विकास के लिए काम किया। दिल्ली में मेट्रो की शुरुआत और सभी व्यावसायिक वाहनों को सीएनजी में बदलने के समय केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकार थी।
केजरीवाल ने शुक्रवार को विधानसभा में उपराज्यपाल पर काम न करने देने और दिल्ली सरकार के अधिकारों में दखल देने के आरोप लगाए थे। केजरीवाल ने कहा था कि उनके पास उतने अघिकार भी नहीं हैं, जितने शीला दीक्षित सरकार के पास थे। उनकी सरकार ने उपराज्यपाल के खिलाफ विधानसभा में बुधवार को आउटकम रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें राजनिवास पर दिल्ली का विकास रोकने सहित कई तरह के आरोप लगाए गए थे और कहा गया था कि बेवजह फाइलें रोक कर दिल्ली सरकार को परेशान किया जा रहा है। दूसरे दिन राजनिवास की ओर से सफाई दी गई कि 97 फीसद फाइलें तय समय में वापस भेजी गर्इं और जिन्हें रोका गया उनके कारण बताए गए। वे फाइलें नियमों से अलग हटकर भेजी गई थीं।
मुख्यमंत्री केजरीवाल ने शुक्रवार को उपराज्यपाल पर सरकार के काम में दखल देने का आरोप लगाते हुए उनकी सरकार को शीला दीक्षित सरकार जितने अधिकार देने की मांग की थी। उनके मुताबिक, शीला दीक्षित अधिकारियों के तबादले करती थीं, खाली पदों को भरती थीं और भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई करने के लिए बना भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) उनके अधीन था। इस पर जवाह देते हुए शीला दीक्षित ने कहा कि वे लगातार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के लिए प्रयास करती रहीं, लेकिन देश की राजधानी होने के कारण उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली। दीक्षित ने कहा कि एसीबी तो दिल्ली सरकार के ही अधीन होती है और आज भी है, लेकिन केजरीवाल को इसका जवाब खुद देना चाहिए कि इसका नियंत्रण उनके पास क्यों नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि वे तबादले करती थीं और खाली जगहों को भरने के लिए दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (डीएसएसएसबी) की मदद भी लेती थीं, लेकिन यह सब वह उपराज्यपाल और केंद्र सरकार को विश्वास में लेकर करती थीं।
उन्होंने कहा कि दिल्ली की मौजूदा सरकार या तो काम करना नहीं चाहती या उसे काम करना नहीं आता है, तभी तो दिल्ली का विकास रोक कर हर स्तर पर राजनीति की जा रही है। यह कैसे संभव है कि जिसके नाम पर विधानसभा बुलाई जा रही हो उसी उपराज्यपाल के खिलाफ विधानसभा में आउटकम रिपोर्ट जारी की जाए और सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक विधानसभा के भीतर और बाहर उपराज्यपाल के खिलाफ नारेबाजी करें। दीक्षित ने कहा कि दिल्ली सरकार के पास ज्यादा अधिकार होने चाहिए, लेकिन इस मुद्दे को लेकर दिल्ली का विकास तो नहीं रोका जाना चाहिए। अगर केजरीवाल को पूर्ण अधिकार चाहिए तो उन्हें हरियाणा, पंजाब या दूसरे राज्यों में जाना चाहिए था, लेकिन वहां भी हर मामले में केंद्र लड़ के विकास नहीं किया जा सकता है। शासन चलाने के लिए सबको साथ लेकर चलने का प्रयास करना चाहिए जो केजरीवाल और उनकी पार्टी ने कभी नहीं किया।
1991 में 69वें संविधान संशोधन के जरिए दिल्ली को सीमित अधिकारों वाली विधानसभा मिली थी। इसके तहत घोषित 66 विषयों में से 63 राज्य सरकार के पास उसी तरह रहे, जैसे अन्य राज्य सरकारों के पास होते हैं। केवल तीन विषय- राजनिवास के मामले, कानून-व्यवस्था (दिल्ली पुलिस) और जमीन (डीडीए) केंद्र सरकार यानी उप राज्यपाल के नियंत्रण में रहे। 1993 में पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा चुनाव जीती। उसके मुख्यमंत्रियों ने प्रयास करके बिजली, पानी, डीटीसी, होमगार्ड और अग्निशमन सेवा अपने अधीन करवाई। उसके बाद लगातार 15 साल दिल्ली में सत्तारूढ़ रही कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने सीवर और बड़ी सड़कें दिल्ली सरकार के अधीन करवार्इं। 2002 में गृह मंत्रालय ने एक सर्कुलर जारी कर विधेयकों को विधानसभा में पेश करने से पहले केंद्र से अनुमति लेने का आदेश दिया। इसके खिलाफ शीला दीक्षित ने आंदोलन किया, लेकिन उन्होंने मर्यादा नहीं छोड़ी। इसी कारण केंद्र की भाजपा सरकार से उनका संवाद बना रहा। इसका उन्हें लाभ भी मिला और कई मौकों पर केंद्र ने उपराज्यपाल के बजाए उनका पक्ष लिया।
इसके उलट कांग्रेस के बाद प्रचंड बहुमत के जरिए दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई आम आदमी पार्टी (आप) सरकार की हमेशा ही केंद्र व उपराज्यपाल से ठनी रही। आप सरकार विकास के बजाए अन्य मुद्दों और विवादों को लेकर सुर्खियों में बनी रही। नौकरशाही से भी उसकी कभी नहीं बनी। बीते दिनों दिल्ली के मुख्य सचिव को केजरीवाल के विधायकों ने उन्हीं के घर में पीटा। इसे लेकर सरकार व अधिकारियों के बीच तनाव और बढ़ गया, लेकिन सरकार के रवैये में बदलाव नहीं आया।