‘वैचारिक आतंक के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज तेज है’

आठ साल तक हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश तैयार करने की धुन में कैदी की तरह जीवन बिताया और जब मुख्यधारा में शामिल हुए तो असहिष्णुता के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज उठनी शुरू हो गई थी। हैदराबाद के इंग्लिश एंड फॉरेन विश्वविद्यालय के पहले (अब पूर्व) कुलपति व रूसी भाषा के विद्वान अभय मोर्य कहते हैं कि प्रतिगामी शक्तियां ज्यादा दिनों तक अंधेरा कायम नहीं रख सकती हैं। गौरी लंकेश की हत्या के बाद के भारत और साहित्यिक माहौल में पसरी बेचैनी पर उनसे पांच सवाल।


सवाल :
हर तरह का दौर होता है। अभी के माहौल में एक बेचैनी है। एक रचनाकार के रूप में आज के समाज की कौन सी चीज आपको सबसे ज्यादा बेचैन करती है?

’आज के दौर में सबसे ज्यादा पीड़ादायक है हर तरफ पसरा आतंक का माहौल। और, इसकी वजह है विचारधारात्मक असहिष्णुता। एक खास तरह के लोग मान कर चल रहे हैं कि सच्चे और सही होने का एकाधिकार सिर्फ उनके पास है। और, उन्होंने अपने तरीके से गढ़े गए राष्ट्रवाद को इसका मापदंड बनाया है। अगर आप हमारी बात मानते हैं तो राष्टÑवादी हैं नहीं तो राष्ट्रद्रोही। यह बात ऊंचे स्वर में दोहराई जा रही है कि अगर तुम हमारे दृष्टिकोण से सही नहीं हो तो हमारे शत्रु हो। यह रवैया हर तरह के लोकतांत्रिक विचार रखने वालों के साथ अपनाया जा रहा है।

सवाल : उग्र राष्ट्रवाद के इस दौर में साहित्य की ऊर्जा को कैसे देखते हैं?

’उग्र राष्ट्रवाद  दुनिया में पहली बार नहीं आया है। यह इटली में भी आया था, जर्मनी में भी आया था। हमारे यहां लेखकों ने प्रतिरोध की पुरजोर आवाज निकाली। लेकिन धीरे-धीरे एक खौफ पसरने लगा। आज मेरे पड़ोसी को उठा लिया गया है तो कल मुझ पर भी हमला हो सकता है जैसी भावना आने लगी। धीरे-धीरे साहित्य में प्रतिपादित होने लगा है कि आपको लिखना है तो अपने खतरे उठा कर लिखो। आज वैचारिक आतंकवाद खूंखार होता जा रहा है। बहादुरशाह जफर तक पूरी तरह खारिज किए जा रहे हैं। लेकिन खतरे उठाकर भी वैचारिक जंग जारी है।

सवाल : गौरी लंकेश के पहले का भारत और आज का भारत। क्या आप दोनों में कोई फर्क देखते हैं।

’अभी कुछ देर पहले मैं वह चैनल देख रहा था जो आमतौर पर सरकार का भोंपू बना रहता है। आज वह महंगे पेट्रोल की बात कर रहा था। प्रतिगामी शक्तियां ज्यादा देर तक अंधेरा कायम नहीं रख पाती हैं। गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक खास तबका सोशल मीडिया पर चीख रहा था कि यह वही है जो चौराहे पर खड़ी होकर बीफ खाती है, और वे उनकी हत्या को जायज ठहरा रहे थे। लेकिन उनकी हत्या में नक्सलियों के हाथ होने की बात सामने आते ही इन्होंने सुर बदल लिया कि लिखती तो ठीक ही थी। यानी अब खून के छींटे आप पर नहीं है तो गौरी लंकेश आपके लिए सकारात्मक हो गर्इं। छात्र संघ चुनावों के पहले जेएनयू के वीसी एबीवीपी के छात्रों के साथ हॉस्टल के हर कमरे में गए और परोक्ष रूप से दक्षिणपंथी छात्र संगठन के लिए प्रचार किया। लेकिन वहां वाम संगठन जीत गया। डूटा में वामपंथी धड़े की अगुआई रही। प्रतिरोध की आवाज तेज है। आजिज लोग कह रहे हैं कि अब तो चोर भी खड़ा हो जाएगा तो उसे वोट देंगे, लेकिन इन्हें वोट नहीं देंगे। बदलाव की बयार बह रही है।

सवाल :सोशल मीडिया ने लिखने वालों का एक नया वर्ग तैयार किया है। आप इस कैसे देखते हैं।

’ सोशल मीडिया पर जो साहित्यकार लिख रहे हैं उनकी टिप्पणियां तो रोचक होती ही हैं आम आदमी भी अपनी टूटी-फूटी भाषा में बेहतरीन तरीके से अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है। अलीगढ़ मुसलिम युनिवर्सिटी की दीबा नियाजी शायरी के साथ अपने तर्कों को रखती हैं। जगदीश्वर चतुर्वेदी बहुत बेहतर लिख रहे हैं।

सवाल :एक लिखने वाला क्या पढ़ता है यह भी अहम है। आप क्या और क्यूं पढ़ते हैं?

’ मैं पिछले आठ सालों से शब्दकोश तैयार कर रहा था, जिसके कारण एक कैदी की जिंदगी काट रहा था। रूस में चिकोतका नाम का एक द्वीप है जहां कबीलाई सभ्यता के लोग रहते हैं और उन्हें चुक्च्या कहते हैं। इनका सदस्य जब मुख्यधारा में शामिल होकर मास्को युनिवर्सिटी पहुंचा तो उससे पूछा गया कि क्या तुमने पुश्किन, दोस्तोवस्की, टॉल्सटॉय को पढ़ा। चुक्च्या ने सिर हिलाकर कहा नहीं। उससे सवाल किया गया कि जब तुमने इन्हें पढ़ा ही नहीं तो साहित्य की धारा में क्यों आ रहे हो? इसके जवाब में उसने कहा कि चुक्च्या पाठक नहीं लेखक बनना चाहता है। तो पिछले कुछ साल मैं पाठक नहीं था। अब शब्दकोश तैयार है तो कुछ पढ़ने का काम करूंगा।

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