जानें किन किन प्रयासों से बना देश का पहला संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय
देश की आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. संपूणार्नंद के विशेष परिश्रम से 1958 में संस्कृत कॉलेज को संस्कृत विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। नाम रखा गया- वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय। इस तरह देश के पहले संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना वाराणसी में हुई। डॉ. संपूणार्नंद संस्कृत से गहरा अनुराग रखते थे। नवंबर, 1966 में राजस्थान के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने लिखा था, ‘देश में संस्कृत की ओर लोगों की अभिरुचि बढ़ रही है वहां इस बात से बहुत चिंता भी हो रही है कि संस्कृत के पठन-पाठन का क्षेत्र बहुत संकीर्ण होता जा रहा है। अर्थागम का कोई समुचित प्रबंध न होने से संस्कृत विद्यालयों में पढ़ने वालों की संख्या बराबर गिरती जा रही है। जो लोग संस्कृत के महत्त्व को समझते हैं उनको इस ओर ध्यान देना चाहिए और केंद्रीय तथा प्रादेशिक शासनों पर दबाव डालना चाहिए कि इन बातों के लिए समुचित प्रबंध करें, नहीं तो संस्कृत सचमुच मृत भाषा होकर रह जाएगी। इसका एक भयंकर परिणाम यह होगा कि आने वाली पीढ़ियों का अपनी संस्कृति के भंडार और उद्गम स्रोत से संबंध विच्छिन्न हो जाएगा, जो केवल भारत की ही नहीं समूचे मानव जगत की भयावह क्षति होगी।’ 1974 में डॉ. संपूणार्नंद के निधन से संस्कृत जगत सर्वाधिक शोकाकुल हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके सम्मान में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय का नाम बदलकर संपूणार्नंद संस्कृत विश्वविद्यालय किया।
केंद्र सरकार ने परंपरागत संस्कृत शिक्षा की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संस्कृत राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति (1961), श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (1962), राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली (1970) और महर्षि संदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन (1987) स्थापित किए। लेकिन दुर्भाग्य से यह क्रम आगे नहीं बढ़ पाया। संस्कृत आयोगों की दशा और दिशा इसका उदाहरण है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में प्रथम संस्कृत आयोग का गठन किया। भाषाशास्त्री डॉ. सुनीति कुमार इसके अध्यक्ष थे। प्रो. वी. राघवन और प्रो. आरएन दांडेकर जैसे विद्वान इस आयोग के सदस्य रहे। दो साल के लंबे विचार-विमर्श के बाद आयोग ने केंद्र सरकार से अनेक सिफारिशें की।
यह विडंबना है राजनीतिक अनिच्छा के कारण इनमें से थोड़ी सिफारिशें भी लागू नहीं हो पार्इं। यूपीए सरकार ने 2012 में दूसरा संस्कृत आयोग गठित किया। सत्यव्रत शास्त्री की अध्यक्षता में बने इस आयोग में कलानाथ शास्त्री समेत कई जाने-माने संस्कृत विद्वानों ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट तीन साल बाद तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री को सौंपी। इसमें दी गई सम्मतियों पर तीन साल से विचार ही चल रहा है। संस्कृत जगत को इस मंथन से अमृत निकलने की प्रतीक्षा है।