अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस: सरकारी फाइलों में दम तोड़ती हैं मजदूरों के हितों घोषणाएं
चौपाल: मजदूर और मजबूर
एक मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर सरकारें मजदूरों के हितों के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं करती हैं लेकिन वे इस एक दिन तक ही सीमित रहती हैं। उसके बाद वे घोषणाएं सरकारी फाइलों में दम तोड़ती रहती हैं। मजदूर और मजबूर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज हमारे देश में मजदूरों की हालत उतनी अच्छी नहीं है जितनी होनी चाहिए। हर मौसम में हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी कई स्थानों पर उन्हें वाजिब मजदूरी नहीं मिलती है। वे खून के घूंट पीते रहते हैं, लेकिन अपने ऊपर होने वाले जुल्मों या नाइंसाफी के विरुद्ध आवाज भी नहीं उठाते हैं। एक कारण है मजबूरी और दूसरा कारण है, उन्हें पता होता है कि हमारी आवाज को कोई नहीं सुनेगा। मजूबरी के कारण मजदूर मेहनत करने के बावजूद अपनी अनिवार्य जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते हैं। उन्हें गरीबी में ही जीवन यापन करना पड़ता है। मजदूरों के लिए सरकार ने जो संस्थाएं बनाई हैं, वहां भी उनकी बात कोई ध्यान से नहीं सुनता है। सरकार को निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों और मजदूरों के हित में सोचना ही नहीं चाहिए बल्कि गंभीर होकर उनके हित में अच्छे फैसले लेने चाहिए। मजदूरों के बिना कोई भी उद्योग तरक्की नहीं कर सकता है।
’राजेश कुमार चौहान, जालंधर
छद्म संत
आसाराम के ठुमके याद आ रहे हैं। होली पर उसका विशालकाय पिचकारी हाथ में लेकर रंग खेलना याद आ रहा है। बेटे नारायण सार्इं के संग नाचना भी याद आ रहा है। कई चैनलों ने यह नाच दिखाया था। नर-नारी बेवकूफ बन रहे थे और वह बना रहा था। विपत्ति काल जब आने को होता है तो बुद्धि भ्रष्ट हो ही जाती है। ऐसे ढोंगी बाबाओं की करतूतों को देख सच्चे धर्मात्माओं और संतों से भी विश्वास उठ जाना स्वाभाविक है। हमारे यहां संत-महात्माओं की अविस्मरणीय परंपरा रही है। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, रैदास, तुकाराम, गुरु नानकदेव, रामकृष्ण परमहंस, योगिनी ललद्यद आदि की कीर्ति को इन छद््म और आचारशून्य संतों ने अपने दुष्कृत्यों से अपमानित किया है। दंभ ने इन्हें स्वेच्छाचारी बना दिया था। विडंबना यह कि वोटों की खातिर इन्हें राजनीतिक नजदीकियां भी प्राप्त थीं। ऐसे आडंबरवादी संतों की जितनी भी निंदा की जाए कम है। अंतत: सत्य की विजय हुई है।
’शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
चिंता की बात
भारत में आजकल विज्ञापन बाजार बिना किसी लाज-लिहाज के मनुष्य की यौनिक संवेदनाओं को कुरेद कर पैसा बनाने पर तुला है। नैतिकता या अनैतिकता से उसका कोई वास्ता नहीं। कई विज्ञापन ऐसे दिखाए जा रहे हैं जिनमें बेधड़क नग्नता परोसी जा रही है। ऐसा करके विज्ञापन एजेंसियां भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पीछे धकेलने का षड्यंत्र रच रही हैं। अनेक विज्ञापनों में महिलाओं को अतिकामुक होते हुए दिखाया जा रहा है जो कि भारतीय संस्कृति में स्त्रीत्व का निरादर है। चिंता की बात है कि स्त्री की अस्मिता से इस खिलवाड़ के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठ रही है। बाजार की दुनिया में हर कोई आगे आकर अपने उत्पाद के प्रति ग्राहकों को लुभाना चाहता है लेकिन इसके लिए समाज को क्या कीमत चुकानी रही है यह भी तो सोचा जाना चाहिए।
’मुकेश कुमावत बोराज, जयपुर