कहानीः मां मुझे वापस मत भेजो
रामदरश मिश्र
मुझे ससुराल वापस मत भेजो।’ उषा बार-बार मां के आगे घिघिया रही थी। ‘वे सब मुझे मार डालेंगे।’
‘नहीं बेटी ऐसा नहीं कहते। पीहर ससुराल में तो थोड़ा फर्क होता ही है। ससुराल नई जगह होती है, नए लोगों के बीच होना होता है। तो वहां पीहर जैसा जीवन नहीं रहता। वहां कुछ नई समस्याएं झेलनी पड़ती हैं, पर धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाता है। आखिर लड़की का असली घर तो ससुराल ही है न।’ मां प्रतिभा उसे समझातीं।
‘मां तुम जैसा समझ रही हो वैसा नहीं है। वहां महीने भर में ही मुझे क्या-क्या सुनना और झेलना पड़ गया। दहेज को लेकर भी रोज ताना सुनना पड़ता है।’
‘लेकिन हम लोगों ने तो अपनी औकात भर ठीक-ठाक दहेज दिया था। हां, उन लोगों ने मारुति कार लेने से इनकार कर दिया था। बहुत कीमती कार मांग रहे थे, तो तुम्हारे पिताजी ने उसके लिए तीन महीने की मोहलत मांगी। हम लोग इंतजाम में लगे हुए हैं, वह भी दे ही देंगे।’
‘यही तो गलती हुई मां, जब उन लोगों ने मारुति कार को ठुकरा कर महंगी कार मांगी, तभी तुम लोगों को समझ लेना चाहिए था कि ये सब बहुत लालची हैं। रिश्ता तोड़ देना चाहिए था। गलती मेरी भी है, मुझे ही शादी से इनकार कर देना चाहिए था।’
माता-पिता दोनों ने समझाया कि बेटी सब ठीक हो जाएगा। शुरू-शुरू में कुछ परेशानियां होती हैं, फिर सब सामान्य हो जाता है।
‘ठीक है, मैं आप लोगों को भार लग रही हूं तो जाना ही पड़ेगा।’
‘नहीं-नहीं बेटी, भार लगने की बात नहीं है। बात तुम्हारे भविष्य की है। हम दोनों आज हैं कल नहीं रहेंगे, तो क्या तुम्हारे भाई-भाभी तुम्हें साथ रखना पसंद करेंगे। आज तो हम हैं तो भी वे भी प्यार करेंगे। कल क्या होगा, कोई नहीं जानता।’ पिता देवराज उसे समझाते।
‘हां, बाबूजी मैं भी यही सोच रही हूं कि कल ससुराल में क्या होगा? यहां तो कोई नौकरी-चाकरी करके जिंदा रह जाऊंगी, पर वहां तो मैं अपने जीवन पर ही खतरा देख रही हूं। वहां अगर जीवन रहा भी तो न रहने के बराबर होगा।’
उसकी ससुराल से संदेशा आया है कि सात दिन बाद उसके पति राजेंद्र विदा कराने आएंगे।
उषा रात को खाट पर पड़ी-पड़ी ससुराल में भोगे हुए दुखों को याद करके रोती थी। उस परिवार में तो सभी लालची दानव लगते हैं। सास-ससुर ताना ही नहीं मारते, घर के सारे काम का बोझ उसी के सिर पर पटके हुए हैं। दुल्हन की तरह वह दस दिन भी नहीं रह पाई। और सास-ससुर के दुर्व्यवहार तो सह भी लेते अगर पति का प्यार मिला होता। पति तो और भी गया गुजरा है- मां-बाप के अन्याय का अनुयायी। उस घर लौट कर जाना है, सोच-सोच कर वह कांप उठती थी और उसका गुस्सा ससुराल से मुड़ कर मां-बाप पर ठहर जाता था।
विदाई का दिन आ गया। उसने मां-बाप दोनों से कहा- आप मेरे पति को मेरी दुर्दशा के बारे में कोई संकेत मत दीजिएगा, नहीं तो घर पहुंचने पर वह मुझे यह कह कर प्रताड़ित करेगा कि तुमने मां-बाप से मेरी शिकायत की है। विदा कराने आए हुए राजेंद्र से किसी ने उषा के बारे में कुछ नहीं कहा- हां देवराज जी ने यह जरूर कहा- ‘बेटा गाड़ी के प्रबंध में लगा हूं, जल्दी ही मिल जाएगी। उषा को लेकर कभी-कभी आया करना।’
उषा विदा हुई तो मन ही मन कहा अंतिम विदा पिताजी, अलविदा माताजी, जब मैं मर जाऊं तब शोक में शरीक होने के लिए नई गाड़ी से आ जाइएगा और दामाद जी को दे दीजिएगा। उषा ससुराल आई और पुरानी कहानी दुहराई जाने लगी। उसने मान लिया था अब इसी तरह जीना है। इससे समझौता कर लो। उसे कविता की एक पंक्ति याद आई गई-
दुख को सखा बना लो ऐ मन
अब दिन ऐसे ही बीतेंगे
लेकिन उसे क्या पता कि इस घर के मन में क्या चल रहा है?
एक दिन वह घर की पहली मंजिल के बारजे में रेलिंग के पास खड़ी होकर मोबाइल पर सेल्फी रेकार्ड कर रही थी कि एकाएक पतिदेव आए और उसे धक्का देकर मंजिल से नीचे गिरा दिया। गिरते ही वह समाप्त हो गई। घर में रोना-पीटना पड़ गया। पुलिस आई तो सुसर जी ने बताया कि ‘उसे चक्कर आता था। कई बार गिर पड़ी थी। उससे कहा गया था कि रेलिंग के पास कभी खड़ी होकर कुछ न करना, लेकिन उसने कहा नहीं माना और रेलिंग के पास खड़ी होकर मोबाइल से किसी से बात करने लगी। हे राम तूने यह क्या किया मेरी प्यारी बहू के साथ।’
मायके के उषा के पिता और भाई भी आए। उन्होंने सोचा कि उसे चक्कर तो नहीं आता था, हो सकता है उसने इन लोगों के अत्याचार से तंग आकर आत्महत्या कर ली हो। देवराज जी मन ही मन अपने को धिक्कारने लगे। ‘बेटी की मौत का जिम्मेदार तू ही है पापी। बेटी की दुर्दशा की कहानी सुन कर भी तूने और तेरी पत्नी ने उसे इस नरक में भेजा था।’ एकाएक वे बुक्का फाड़ कर रोने लगा।
उषा की पड़ोसन को पता था कि इस घर में उषा के साथ क्या हो रहा है? उसे इस बात पर विश्वास नहीं हुआ कि वह चक्कर आने से नीचे गिरी है। वह गिरती तो रेलिंग रोक लेती और रेलिंग के अंदर ही गिरती।
उषा गिरी थी तो अन्य कई लोगों के साथ वह भी घटना स्थल पर आ गई थी। उषा के हाथ से गिरे हुए मोबाइल पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसे उठा लिया।
तेरहवीं हुई। सब कुछ शांत हो गया था। पड़ोसन ने मोबाइल लाकर अपने टेबल पर रख लिया था। उसने एक दिन सोचा- जरा देखें तो उषा किसे फोन कर रही थी। उसका हाथ सेल्फी के बटन पर लग गया और चौंक उठीं- अरे उसे तो पीछे से धकेला जा रहा है और उसे धकेलने वाला उसका पति मुआ राजेंद्र है। लगता है, उषा सेल्फी में अपना चेहरा रेकार्ड कर रही थी। तो यह बात है। पति महोदय उसे मार कर दूसरा विवाह करना चाहते रहे होंगे।
मां-बाप को दुबारा दहेज चाहिए था। फिर उन्होंने अपने क्रूर बेटे को इशारा कर दिया होगा। पड़ोसन बहुत भली तो थी ही, साहसी भी थी। चुप नहीं बैठी। उषा के मायके पहुंच गई और उषा के पीहर वालों को मोबाइल दिखा कर वास्तविकता का ज्ञान कराया।
फिर क्या था, देवराज जी के दुखी मन में क्रोध की ज्वाला दहक उठी। तो आत्महत्या नहीं है, हत्या है। और बात थाने में पहुंच गई। वहां देवराज जी ने उषा के साथ होने वाले अत्याचारों की कहानी सुनाई। थाने में एफआइआर लिखा कर देवराज जी बेटे के साथ ससुराल आए तो उषा के सास-ससुर थोड़ा चौंके और बोल पड़े- ‘अब यहां क्या करने आए हैं। बीमार बेटी देकर मेरे बेटे की जिंदगी खराब कर दी।’
‘वे ही नहीं आए हैं, हम भी आए हैं।’ कहते हुए थानेदार पुलिस के साथ वहां धमक पड़े।
‘यह क्या मजाक है जनाब?’ उषा के ससुर थोड़ा निडर होने का अभिनय करते हुए बोले।
‘मजाक? अरे मजाक तो तुम लोगों ने किया है एक लड़की के जीवन के साथ।’ कहते हुए थानेदार ने मोबाइल चला कर उनके आगे कर दिया।
‘ये ये क्या है!’ ससुरजी हकलाने लगे।
‘बांध लो हत्यारे मां-बाप और बेटे को।’ थानेदार ने सिपाहियों को आदेश दिया।
ये तीनों हथकड़ी पहने थाने की ओर जा रहे थे। भीड़ जुट आई थी और लोग इन तीनों के नाम पर थूक रहे थे।
उषा के भाई ने कुछ संतोष से कहा- ‘इन हत्यारों को इनकी करनी का फल मिल जाएगा।’ ०