पश्चिम बंगाल में कुछ ज्यादा ही अति उत्साह में भाजपा
पश्चिम बंगाल को लेकर भाजपा कुछ ज्यादा ही अति उत्साह दिखा रही है। सांप्रदायिकता के मुद्दे पर सवार होकर अगले विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी के वोट बैंक को खिसकाने के मंसूबे पाल रहे हैं अमित शाह। पर जमीनी हकीकत से या तो वाकई अनजान हैं या फिर ऐसा वे जान-बूझकर कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार से एकदम अलग है इस सूबे का जातीय और मजहबी विभाजन। मुसलमानों की आबादी 35 फीसद ठहरी। सो, उत्तर प्रदेश की तरह 40 फीसद वोट पाकर सरकार नहीं बन सकती पश्चिम बंगाल में। ममता यों ही चिंता नहीं कर रहीं अल्पसंख्यक वोट बैंक की। नरेंद्र मोदी की आंधी का इस सूबे में न तो 2014 के लोकसभा चुनाव में रत्तीभर असर हुआ था और न उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में। हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस और वाम मोर्चा दोनों के दरकते गढ़ को देख भाजपा यहां देर-सबेर मुख्य विपक्षी दल जरूर बन सकती है।
बहरहाल अमित शाह ने सूबे में पूरे तीन दिन खपाए। पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं को भविष्य के सुनहरे सब्जबाग दिखा ममता के मुकाबले डटे रहने का बौद्धिकता घूंट पिलाया। लेकिन भाजपा की सांगठनिक कमजोरी से वे अभी अनभिज्ञ लगते हैं। अन्यथा 2019 में 42 में से कम से कम 21 सीटें जीतने का हिमालयी लक्ष्य कतई न रखते। ले-देकर दो ही लोकसभा सीटें हैं पार्टी के पास। इनमें दार्जिलिंग तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चे की बदौलत मिली है उसे। अमित शाह ने अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरने की अलबत्ता पुरजोर कवायद की। तृणमूल कांग्रेस के हमलों और अत्याचारों को चुपचाप सहने के बजाय जमकर प्रतिवाद करने की सलाह तो जरूर दे दी पर सुनने का माद्दा नहीं रख पाए। स्थानीय नेताओं ने अत्याचारों का चिट्ठा पेश किया तो आगबबूला हो गए। सवाल दाग दिया कि उन्होंने पलट कर कितने हमले किए। सब बगलें झांकने लगे तो शाह ने फिर हड़काया कि वे कहानियां सुनने के लिए कोलकाता नहीं आएंगे। पार्टी के विस्तार के लिए हो रहे प्रयासों के बारे में जवाब-तलब भी खूब किया। जाहिर है कि मनमाफिक रिस्पांस नहीं मिलने से ही पहुंच गया होगा, पारा सातवें आसमान पर।