नीतीश पर फिदा हुए रामविलास पासवान

अब तो समीकरण बदल गए। लिहाजा सियासत के चर्चित पलटू राम ने भी पलटी मारने में देर नहीं लगाई। लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान ने फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपना छोटा भाई मानना शुरू कर दिया। वे नीतीश पर फिदा हो गए हैं। जब भी पटना आते हैं, नीतीश का गुणगान करते नहीं अघाते। उनकी नजर में कल तक बेशक बिहार की महागठबंधन सरकार एक जनविरोधी सरकार थी पर अब तो नीतीश जैसा कोई और मुख्यमंत्री उन्हें सारे देश में दिख ही नहीं रहा। कल तक नीतीश अपने इस बड़े भाई को गैर महादलित बताते थे, अब नहीं। जब से दोनों साथ आए हैं, महादलित की सियासत का अता-पता नहीं। वह भी दौर था जब नीतीश ने पासवान की जात को छोड़ बाकी सभी दलित जातियों को महादलित घोषित किया था। उनके लिए विशेष मदद की योजना भी लागू की थी पर अब दोनों एक साथ हैं तो दलित और महादलित के नाम पर सियासी रोटियां सेकना बंद। पहले पासवान लालू के साथ-साथ नीतीश की भी खूब करते थे आलोचना लेकिन अब तो वे बस लालू पर ही निकालते हैं अपनी सारी भड़ास। पूत तो पिता की राह चलता ही है लिहाजा चिराग पासवान भी अब अपने चाचा यानी नीतीश का गुणगान कर रहे हैं। हां एक और भतीजा भी है तेजस्वी। जो कल तक अपने नीतीश चाचा से सरकार चलाने के गुर सीख रहा था पर अब तो नीतीश उसके लिए बुरे चाचा बन गए हैं। चिराग और तेजस्वी दोनों भतीजों ने अपने चाचाओं के प्रति रिश्तों में उलटफेर कर दिया।
गोरखधंधा
राजनीति को कभी सेवा का माध्यम मानते थे इस देश के लोग। पर समय के साथ पता ही नहीं लग पाया कि देखते-देखते सेवा का यह माध्यम कैसे धंधा बन गया। इस धंधे में न हल्दी लगती है और न फिटकरी। पर रंग चोखा ही चोखा होता है सदा। तभी तो नौकरशाह हों या मीडिया के लोग। कारोबारी हों या बाहुबली, सब सियासी चोला पहनने लगे हैं। त्रिशंकु चुनावी नतीजों ने निर्दलीयों और छोटे दलों के भाव इस कदर बढ़ा दिए कि जिसे देखो वही अपनी अलग पार्टी बना रहा है। जनता पार्टी देश पर 1977 से 1979 तक ही राज कर पाई और फिर टूट गई। उसके बाद न जाने कितने टुकड़े हुए इस पार्टी के। पर जनता पार्टी फिर भी बनी रही। दशकों तक तो सुब्रह्मण्यम स्वामी ही ढोते रहे इसका मलबा। अजित सिंह की अगुआई वाला लोकदल कब का राष्ट्रीय लोकदल बन गया पर लोकदल को अब भी अलीगढ़ के एक छुटभैये नेता जिंदा रखे हैं। और भी कई दलों का यही हाल है। मसलन, कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का भाजपा में विलय हुए वर्षों बीत गए। लेकिन इसके अवशेष अभी भी एक और लोधी नेता देवेंद्र सिंह ढो रहे हैं। बाकायदा बैठकें कर अखबारों में बयानबाजी तो करते ही रहे हैं अब तो मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी कूदने का एलान कर दिया। इसी तरह उमा भारती ने जो भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई थी, उसे भी उन्हीं का बागी हो गया कोई चेला जिंदा रखे है। चुनाव आयोग के रिकार्ड के हिसाब से देश में मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सारी पार्टियों की संख्या भले सौ से भी कम हो, पर पंजीकृत दलों का आंकड़ा हजारों में है। पहले तो मजाक में यही कहा जाता था कि चुनाव के दौरान रौब गांठने के लिए सरकारी अंगरक्षक लेने के मकसद को पूरा करती थी ये कागजी पार्टियां पर नोटबंदी के दौरान नया खुलासा हुआ कि कालेधन को सफेद करने में भी कम मददगार नहीं है पार्टी चलाने का गोरखधंधा।

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