अमन के रास्ते

हर तरफ सवाल हैं, लेकिन जवाब कुछ सूझ नहीं रहा। जिन्हें जवाब देने की जिम्मेदारियां मिली हैं, उनकी खामोशी समझ में नहीं आती। ये हकीकत है आज के दौर के हमारे भारत की, जहां देश का आम नागरिक हर तरह की राजनीतिक उठापटक से दूर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी चलाने और दो जून की रोटी जुटाने में सब कुछ फरामोश किए बैठा है। दूसरी ओर, देश के नौजवानों का एक बड़ा तबका सोशल मीडिया के सहारे साजिशों के चंगुल में फंस कर नफरतों को बढ़ावा देने में जोर-शोर से लगा बैठा है। हालात ये हैं कि कुछ गायक और कलाकार भी फनकारी के अलावा नफरतों का कारोबार करने लगे हैं, बहाना कभी अजान या गुरबानी का कथित शोर होता है तो कभी देश से जुड़े जज्बात। खुल के बोलने और अपना हक जताने वाली महिलाएं उन्हें ‘बेशर्म’ या दूसरी तमाम गालियों के लायक लगने लगती हैं। उन पर देह व्यापार में लिप्त होने का इल्जाम लगा दिया जाता है और इस तरह मर्दानगी के दावों को पुख्ता किया जाता है।

यहां रोज कुछ खास मजहबी पहचान वालों से उनके देशभक्त होने का सबूत मांगा जाता है और किसी कमजोर तबके के व्यक्ति से अपने अधिकार छोड़ देने की उम्मीद की जाती है। सवाल है कि कोई कैसे तय करेगा कि कौन देशभक्त है, कौन देशद्रोही, कौन अपना है, कौन विदेशी! क्रिकेट के मैदान से देश की सरहदों तक तैनात दोनों तरफ के लोग एक दूसरे को सबसे बड़े दुश्मन की नजरों से देखते हैं और इनके पैरोकार एक दूसरे को देख लेने की धमकी देते हैं। खेल मनोरंजन और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा न होकर देशभक्ति नापने का पैमाना बन कर रह गया है। हारने के बाद अपने ही चहेते खिलाड़ियों को अभद्र भाषा के अलंकारों से नवाजने में नहीं हिचकते और जीतने पर दुश्मन देश की इज्जत को अपमान सूचक शब्दों से रौंदते हुए जबान नहीं लड़खड़ाती। जो दुश्मन देश को जितनी भद्दी गाली दे, वह उतना बड़ा देशभक्त और जो अमन-चैन की बात करे वह देशद्रोही! कश्मीर की जमीन दिखाई देती है तो यह स्वाभाविक है, लेकिन वहां रहने वाले कश्मीरियों का दर्द भी इसी शिद्दत से दिखता तो ज्यादा अच्छा होता।

उन कश्मीरियों का भी क्या कहना जो जम्हूरियत से दूर आतंकवाद के सहारे ‘आजादी’ और ‘इंसाफ’ पाना चाहते हैं, जबकि उन्हें भटकाने और बढ़ावा देने वाले अलगाववादी संगठन अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं। दूसरी ओर, साल-दर-साल सिविल परीक्षाओं में कामयाब होने वाले कश्मीरियों की तादाद में इजाफा कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं कि कश्मीर में अभी भी वे नौजवान हैं जो भारत को अपना वतन मानते हैं और उससे अलग नहीं होना चाहते। शायद अलगाववादियों का यही डर उन्हें ऐसे नौजवानों का कत्ल करने पर मजबूर करता है। कैप्टन उमर फैयाज और डीएसपी अयूब पंडित को अलगाववादी सिर्फ इसलिए मार देते हैं कि वे कश्मीर के होकर भी तथाकथित ‘कश्मीर की आजादी’ के लिए नहीं लड़ कर भारतीय सैन्य बल और पुलिस को अपनी सेवाएं दे रहे थे। आज देश में जो माहौल है, उसमें मुद्दे ये उछाले जा रहे हैं कि पिछली सरकार कितनी निकम्मी थी, वर्तमान सरकार क्यों नहीं कुछ कर रही है, जेएनयू राष्ट्रवादी क्यों नहीं, मुसलिम चरमपंथ के विरोध में हिंदू चरमपंथ कहां तक पहुंचा, बीफ पर पाबंदी हो या नहीं, उत्तर में हो तो दक्षिण और पूर्व में क्यों न हो!
लेकिन मेरे मन में उठने वाले सवाल कुछ और हैं। मुद्दे जो असल में होने चाहिए, वे कुछ और हैं। सवाल यह कि क्यों हमारे अवचेतन मन में इतनी

नकारात्मकता घर कर गई है? क्यों हम इक्कीसवीं सदी में रह कर भी प्रतिगामी विचारों को आगे बढ़ाना चाहते हैं? दुनिया भर में रोज होने वाले नए आविष्कारों और हमारे यहां भी उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों में दक्ष होने के बावजूद क्यों हम अफवाहों पर इकट्ठा होकर किसी की हत्या कर देते हैं?बहस का मुद्दा विकास होना चाहिए कि हम इसके वादों और दावों की कसौटी पर कहां खड़े हैं। हमें अपनी सरकार से पारदर्शिता की उम्मीद करनी चाहिए, सवाल पूछने की आजादी होनी चाहिए और जवाबदेही तय करनी चाहिए। लोकतंत्र को बचाने की कवायद में सवाल पूछने के अधिकार पर पहरा नहीं लगाना चाहिए। मुद्दा हर किसी की सुरक्षा का होना चाहिए, अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का होना चाहिए, नए आविष्कारों के पेटेंट का होना चाहिए। आम आदमी की आय बढ़ने का जरिया ढूंढ़ना चाहिए। अफसोस कि ऐसा कोई भी मुद्दा बड़ी बहस के लिए तैयार होता नजर नहीं आ रहा। अब उस राजनीति और विचारधारा को क्या कहें जो केवल कश्मीर को नहीं, देश के हर तबके, हर हिस्से, हिंदू-मुसलिम, अमीर-गरीब, राष्ट्रवादी-राष्ट्रद्रोही के खांचे में बांट देना चाहती है, नफरतों को बढ़ावा देकर अपना कोई मकसद पूरा करना चाहती है। ऐसे में बस यही दुआ लफ्जों से आजाद होती है- ‘नफरतों के इस दौर में अमन की लौ जलाई है / ऐ खुदा, इस शमां की हिफाजत करना!’

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