याद हमारी आएगीः खोटे का खरापन
अमर ज्योति’ की सौदामिनी, ‘मुगले आजम’ की जोधाबाई, ‘बॉबी’ की मिसेज ब्रिगेंजा या ‘बिदाई’ की पार्वती को भला कौन भूल सकता है। महज 26 साल की थीं वे, जब उनके पति का निधन हो गया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि पति के निधन के बाद अगर उनकी किसी ने मदद की तो वह थी उनकी पढ़ाई-लिखाई। दुर्गा का परंपराभंजक तेवर
उस दौर में कलाकार मासिक तनख्वाह पर काम करते थे। प्रभात, न्यू थियेटर्स, प्रकाश पिक्चर्स, ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी जैसे कई स्टूडियो फिल्में बनाते थे। कोई कलाकार एक स्टूडियो में काम करते हुए दूसरे स्टूडियो की फिल्म साइन नहीं कर सकता था। दुर्गा खोटे ने सबसे पहले इसका विरोध किया। प्रभात में काम करते हुए खोटे ने न्यू थियेटर्स की ‘राजरानी मीरा’ (1933) और ‘सीता’ (1934) में काम किया। नतीजा था कि स्टूडियो के लिए मासिक तनख्वाह पर काम करने का चलन 1940 के बाद खत्म होने लगा। कुंदनलाल सहगल से लेकर पृथ्वीराज कपूर ने भी फ्रीलांसिंग शुरू कर दी थी।
हर तरह के बदलाव को बाधाओं का सामना करना पड़ता है। आज फिल्म सितारों को अपनी पहली फिल्म से ही जैसी शोहरत मिल जाती है, वह बात सिनेमा के शुरुआती दौर में नहीं थी। दादासाहेब फालके को 1913 में अपनी पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ में तारामति के लिए महिला कलाकार नहीं मिली थी। फिल्मों में काम करना हैसियत गिराने वाला काम माना जाता था। उस वक्त फालके जी को यह काम होटल में 10 रुपए महीना पाने वाले एक वेटर अन्ना सालुंके से कराना पड़ा था। वह भी इसलिए राजी हुआ कि फालके ने उसे 15 रुपए महीने देने का प्रस्ताव दिया था। जब वही सालुंके फालके की ‘लंका दहन’ (1917) में राम और सीता की दोहरी भूमिका निभा रहे थे तो रामजी के परदे पर आते ही दर्शक जूते-चप्पल उतार रहे थे। फालके को तारामति के लिए महिला कलाकार भले न मिली थी, मगर इसी साल 1913 में ‘मोहिनी भस्मासुर’ के लिए दुर्गाबाई कामत नामक की महिला आगे आर्इं। उनके पति जेजे स्कूल आॅफ आर्ट्स में इतिहास के प्रोफेसर थे। उन्हें सिनेमा में काम करने का ‘पुरस्कार’ यह मिला कि बिरादरी ने उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया। समाज में उन्हें बेइज्जत किया गया।
मगर वक्त बदला। दुर्गाबाई कामत और उनकी बेटी कमलाबाई (कामत) गोखले को सिनेमा इतिहास में पहली महिला अभिनेत्री और पहली बाल कलाकार होने का सम्मान प्राप्त है और उनकी नाल आज भी विक्रम गोखले जैसे अभिनेता के रूप में देखी जा सकती है। एक दुर्गाबाई कामत ने सामाजिक और कथित नैतिक बंधनों को हाशिये पर डाला था। दूसरी दुर्गा (दुर्गा खोटे) फिल्मजगत में आर्इं तो समाज ने उनके साथ भी यही करना चाहा। जब दुर्गा खोटे ने 1931 में वाडिया बंधुओं की ‘फरेबी जाल’ में काम किया, तो समाज ने उनको भी बेइज्जत करना शुरू कर दिया। उन पर पत्थर फेंके गए। सामाजिक बहिष्कार का डर दिखाया गया। मगर यह दुर्गा बैरिस्टर पांडुरंग की बेटी थीं। वह धमकियों से नहीं डरीं। फालके को तारामति न मिली हो पर 1932 में मराठी व हिंदी में बनी प्रभात की वी शांताराम निर्देशित ‘अयोध्येचा राजा’ में तारामति की भूमिका दुर्गा खोटे ने निभाई, तमाम धमकियों और मुश्किलों के बावजूद।
दुर्गा खोटे सेंट जेवियर्स में पढ़ी थीं। जिस ‘बेटी पढ़ाओ’ के नारे आज लग रहे हैं, उसे दुर्गा खोटे ने 1930 के दशक में साकार किया था। महज 26 साल की थीं वे, जब उनके पति का निधन हो गया। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि पति के निधन के बाद अगर उनकी किसी ने मदद की तो वह थी उनकी पढ़ाई-लिखाई। शिक्षित होने का नतीजा यह था कि दुर्गा खोटे ने फिल्मजगत में आते ही परंपराभंजक तेवर दिखाए।
स दौर में कलाकार मासिक तनख्वाह पर काम करते थे। प्रभात, न्यू थियेटर्स, प्रकाश पिक्चर्स, ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी जैसे कई स्टूडियो फिल्में बनाते थे। कोई कलाकार एक स्टूडियो में काम करते हुए दूसरे स्टूडियो की फिल्म साइन नहीं कर सकता था। दुर्गा खोटे ने सबसे पहले इसका विरोध किया। प्रभात में काम करते हुए खोटे ने न्यू थियेटर्स की ‘राजरानी मीरा’ (1933) और ‘सीता’ (1934) में काम किया। इस पहल का ही नतीजा था कि स्टूडियो के लिए मासिक तनख्वाह पर काम करने का चलन 1940 के बाद खत्म होने लगा। कुंदनलाल सहगल से लेकर पृथ्वीराज कपूर ने भी फ्रीलांसिंग शुरू कर दी थी।
दुर्गा खोटे दबंग महिला थीं और एक्शन फिल्मों में स्टंट भी खुद करती थीं। एक बार शूटिंग के दौरान वह एक शेर के सामने डट कर खड़ी हो गर्इं। तब के मशहूर एक्शन हीरो जयराज की मानें तो उस दौर में दुर्गा खोटे से बेहतरीन घुड़सवार पूरे फिल्मजगत में नहीं था। ‘मुगले आजम’ में जोधाबाई की भूमिका करने वाली खोटे फिल्मों में आने के आठ साल के अंदर ‘साथी’ फिल्म से निर्माता और निर्देशक बन गर्इं। उनकी कंपनी ने ही ‘वागले की दुनिया’ जैसा मशहूर धारावाहिक बनाया था।