कभी गहरी दोस्‍ती थी, फिर एक-दूसरे के धुर विरोधी हो गए ये राजनेता

कर्नाटक में कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) गठबंधन ने सरकार बनाई है। ये गठबंधन तब हुआ, जब दोनों पार्टियों ने चुनाव प्रचार के दौरान एक-दूसरे पर जमकर कीचड़ उछाला था। वहीं कर्नाटक से सुदूर उत्तर में स्थित राज्य उत्तर प्रदेश में दो विपरीत राजनीतिक ध्रुवों सपा और बसपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ने का ऐलान किया है। ये संभवत: सत्तारूढ़ भाजपा और एनडीए गठबंधन को रोकने की दिशा में उठाया गए सबसे कठोर कदमों में से एक है।

कुमार स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह की तस्वीरों को कौन भूल सकता है? इस समारोह में विभिन्न प्रदेशों के राजनेताओं ने संसदीय चुनावों से पहले एकमंच पर आकर एकजुटता का संदेश दिया था। अब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने गैर भाजपाई महागठबंधन बनाने का ऐलान किया है। इसके लिए सभी विरोधी विपक्षी दलों की आगामी 19 जनवरी को रैली का ऐलान किया गया है। ये राजनीतिक पार्टियां विभिन्न राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों के बावजूद एकजुट हो रही हैं। इस एकजुटता को देखकर बीजेपी ने भी खुला ऐलान कर दिया है कि साल 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी बनाम अन्य होने वाला है। इन राजनीतिक पार्टियों के पीछे मौजूद कुछ चेहरों का अपना इतिहास भी है। हम याद करेंगे आज हुई ये दोस्ती कब राजनीतिक कारणों से रार में बदल गई।

ममता बनर्जी और कांग्रेस : पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपना राजनीतिक करियर कांग्रेस पार्टी से साल 1970 में शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने तेजी से अपनी राजनीतिक पैठ प्रदेश में बना ली। साल 1996 में ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह सत्तारूढ़ सीपीआई — मार्क्सवादी पार्टी के हाथों में खेल रही है। उन्होंने साल 1997 में कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाने और चुनाव लड़ने का फैसला किया। इसके बाद उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बाद में ममता बनर्जी ने साल 1998 में अलग राजनीतिक पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाने का फैसला किया।

कांशीराम और मायावती : साल 1995 में, बसपा की मायावती और उनके राजनीतिक गुरु कांशीराम के बीच पार्टी में मतभेद की खबरें आने लगीं। रिपोर्ट के मुताबिक, कांशीराम को मायावती के इरादों पर संदेह होने लगा और उन्हें शक हुआ कि कहीं मायावती उन्हें दरकिनार न कर दें। क्योंकि पार्टी का हर महत्वपूर्ण फैसला वह खुद ले रहीं थीं। मायावती ने बाद में कांशीराम के सलाहकारों को खुले आम बेइज्जत करना भी शुरू कर दिया था।

उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे : साल 2005 में शिव सेना के पूर्व नेता राज ठाकरे ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने का फैसला किया। ये फैसला पार्टी के मुखिया और अपने चाचा बाल ठाकरे के साथ पैदा हुए मतभेदों के बाद लिया गया था। इसके साथ ही उनके अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे के साथ भी मतभेद शुरू हो गए थे। बाद में अपने फैसले की घोषणा करते हुए उन्होंने हाल के चुनावों में पार्टी की हार पर भी जमकर सवाल खड़े किए थे। उन्होंने एक मीडिया कार्यक्रम में भी पार्टी के नेतृत्व पर सवाल उठाए थे। इसके अगले साल उन्होंने अपनी खुद की पार्टी बनाने का फैसला किया, जिसका नाम महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना रखा गया।

फारुक अब्दुल्ला और अटल बिहारी बाजपेयी : साल 1999 में, फारुक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस ने अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से गठबंधन किया था। लेकिन साल 2002 के बाद, जब अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला ने पार्टी का नेतृत्व संभाला तो पार्टी ने एनडीए के साथ अपने गठबंधन को समाप्त घोषित कर दिया। अपने इंटरव्यू में साल 2006 में फारुक अब्दुल्ला ने कहा कि साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद भी एनडीए के साथ गठबंधन में बने रहना हमारी गलती थी। इसके बाद उन्होंने एनडीए के साथ दोबारा गठबंधन की किसी भी उम्मीद को उन्होंने खारिज कर दिया था।

जगनमोहन रेड्डी और कांग्रेस : आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस के साथ अलगाव किया था और साल 2010 में वाईएसआर कांग्रेस का गठन किया था। रेड्डी और कांग्रेस के बीच तनाव का मुख्य कारण इसीलिए शुरू हुआ था क्योंकि अपने पिता की मौत के बाद जगनमोहन ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर दावा ठोंक दिया था। पार्टी आलाकमान इस पद के लिए रोसैया के पक्ष में थी, जो वाईएसआर की कैबिनेट में वित्त मंत्री की भूमिका में थे।

के चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू : के चंद्रशेखर राव साल 1983 में तेलुगू देशम पार्टी में शामिल हुए थे। साल 1996 में वह आंध्र प्रदेश में एन. चंद्रबाबू नायडू की सरकार में परिवहन मंत्री थे। वह आंध्र प्रदेश की विधानसभा में साल 2000—2001 तक डिप्टी स्पीकर भी रहे। इसके बाद उन्होंने अपना तेलंगाना इलाके के लोगों की तकलीफों और समस्याओं पर केंद्रित करना शुरू कर दिया। साल 2001 में, उन्होंने तेलुगूदेशम पार्टी के अपने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया और खुद की पार्टी बना ली। इस पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति था, इस पार्टी का मकसद अलग तेलंगाना राज्य की स्थापना करना था।

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