बिहार: मुजफ्फरपुर जैसा कांड रोकने के लिए बना निदेशालय तीन साल से निष्क्रिय, फिर भी एक साल में एक करोड़ खर्च
बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित बालिका गृह में बच्चियों का यौन उत्पीड़न होता रहा। मानसिक और शारीरिक रूप से उनका शोषण किया गया। उन्हें होटलों में भेजा गया। देह व्यापार करवाया गया। वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि बाल सुधार गृहों का भी ऑडिट होना चाहिए। इसके बाद टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सायंस की टीम के द्वारा ऑडिट किए जाने पर इस मामले का खुलासा हुआ। शायद यह टीम निरीक्षण न करती तो अभी भी बच्चियों दरिदों के हाथों रौंदी जाती रहती। लेकिन इस घटना ने बिहार के सोशल ऑडिट टीम निदेशालय की पोल खोलकर रख दी। मुजफ्फरपुर जैसी घटना को रोकने के लिए बना निदेशालय तीन साल से निष्क्रिय है। 2015 के बाद से बिहार सरकार ने अल्पावास गृह के सामाजिक अंकेक्षण नहीं करवाया। जबकि, समाज कल्याण विभाग के प्रधान सचिव सोशल ऑडिट निदेशालय एग्जीक्यूटिव कमिटी के मेंबर हैं।
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) के सक्रिय सदस्य उज्ज्वल कुमार द्वारा मांगी गई आरटीआई के जवाब में जवाब में ग्रामीण विकास विभाग ने कहा है कि सामाजिक अंकेक्षण सोसाइटी द्वारा वित्तीय वर्ष 2017-18 में कोई सामाजिक अंकेक्षण नहीं कराया गया। इसके बावजूद केंद्र सरकार द्वारा मिले एक करोड़ सात लाख चार हज़ार एक सौ पचास रुपये (1,07,04,150 रुपये) खर्च हो गए। आरटीआई से यह बात भी सामने आई है कि बिहार सरकार ने निदेशालय को अबतक एक भी रुपया नहीं दिया है और न ही पूर्णकालिक निदेशक का विधिवत चयन किया गया है।
गौरतलब है कि वर्ष 2015 में सामाजिक अंकेक्षण सोसाइटी का गठन हुआ था, ताकि इस सोसायटी के द्वारा सरकार ग्रामीण विभाग से जुड़े मनरेगा जैसे कार्यों में पारदर्शिता बनाए रखने के लिए समाजिक अंकेक्षण का कार्य हो सके। हालांकि, बाद में इसे स्वतंत्र ईकाई बना दिया गया। सरकार किसी भी विभाग से जुड़ी योजना का सामाजिक अंकेक्षण करा सकती है। इस सोसाइटी की एग्जीक्यूटिव कमिटी में 15 विभागों के प्रधान सचिव हैं। जिनमें प्रधान समाज कल्याण विभाग के प्रधान सचिव भी शामिल हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि बिहार सरकार ने अल्पावास गृह के सामाजिक अंकेक्षण जैसा बेहद जरूरी काम निदेशालय के मार्फत 2015 के बाद अबतक क्यूं नहीं कराया? फिलहाल यह ग्रामीण विकास विभाग की योजनाओं का सामाजिक अंकेक्षण कर रही है।
टाटा इंस्टीट्यूट की सोशल टीम द्वारा अल्पावास गृह सोशल ऑडिट से ही इस पूरे मामले का खुलासा हआ है। इससे एक बात तो जरूर स्पष्ट होती है कि पारदर्शिता और जवाबदेही के लिहाज से सोशल ऑडिट एक मजबूत औजार है। यदि बिहार सरकार द्वारा गठित यह सोसायटी समय-समय पर सोशल ऑडिट करती तो शायद ही मुजफ्फरपुर जैसी घटना होती। यही वजह है कि बिहार और मुजफ्फरपुर घटना से सबक लेते हुए दिल्ली महिला आयोग ने महिलाओं और लड़कियों के सभी शेल्टर होम्स के सोशल ऑडिट का निर्देश दिया है। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने भी इसकी गहराई से जांच के निर्देश दिए हैं।